हिरण्यकश्यपु ने तक करके ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर लिया और उनसे वर प्राप्त कर अभय हो गया और तीनों लोकों को विजय करके एकछत्र राज्य करने लगा। उसका छोटा भाई हिरण्याक्ष उसकी आज्ञा का पालन करते हुए शत्रुओं का नाश करने लगा।
एक दिन घूमते-घूमते हिरण्याक्ष वरुण पुरी पहुँच गया और वरुण देव से युद्ध की याचना करते हुए कहने लगा, "हे वरुण देव! आपने जगत समस्त दैत्यों और दानवों को जीता है, अब आप मुझसे युद्ध करके विजय प्राप्त कीजिए।
हिरण्याक्ष की बात सुनकर वरुण देव को क्रोध तो बहुत आया किन्तु समय को समझते हुए उन्होंने हिरण्याक्ष से कहा, "हे हिरण्याक्ष! मैं आप जैसे बलशाली वीर से युद्ध करने योग्य नहीं हूँ। भगवान विष्णु ने मुझसे अधिक दैत्यों और दानवों को युद्ध में परास्त किया है, आपको उन्हीं के पास जाकर युद्ध की याचना करना चाहिए। वे ही आपकी इच्छा को पूर्ण करेंगे।"
वरुण देव की बात सुनकर हिरण्याक्ष अति प्रसन्न हुआ और रसातल की ओर चला गया। जब वह रसातल की ओर जा रहा था उसी समय भगवान विष्णु वाराह अवतार धारण कर पृथ्वी को रसातल से ला रहे थे। भगवान वाराह को पृथ्वी को ले जाते देख कर हिरण्याक्ष ने ललकार कर कहा, "अरे वन्य पशु! तू जल में कहाँ से आ गया? मूर्ख पशु, तू पृथ्वी को कहाँ ले जाए जा रहा है? इस पृथ्वी को तो ब्रह्मा जी ने हमें दे दिया था, यह हमारी संपत्ति है। मेरे होते हुए तू पृथ्वी को यहाँ से नहीं ले जा सकता।"
हिरण्याक्ष के वचन सुनकर भगवान वाराह को अत्यन्त क्रोध आया जिससे उनकी दाढ़ों पर रखी पृथ्वी काँपने लगी। अतः उन्होंने वहाँ पर पृथ्वी को छोड़ कर युद्ध करना उचित नहीं समझा और गजराज की भाँति शीघ्रतापूर्वक जल से बाहर निकले। हिरण्याक्ष भी ग्राह के समान उनके पीछे भागने लगा। भागते हुए वह चिल्लाता जा रहा था, "रे कायर! तुझे भागने में लज्जा नहीं आती! आ मुझसे युद्ध कर।"
वाराह भगवान ने जल से बाहर आकर पृथ्वी को योग्य स्थान पर स्थापित कर उसे अपनी आधार शक्ति प्रदान किया। तब तक हिरण्याक्ष भी वहाँ आ पहुँचा। भगवान वाराह और हिरण्याक्ष के मध्य घोर युद्ध होने लगा। अभिजित नक्षत्र के आते ही वाराह रूप भगवान विष्णु ने हिरण्याक्ष पर सुदर्शन चक्र चला दिया और हिरण्याक्ष के प्राण-पखेरू उड़ गये।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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