 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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नामस्मरण से प्राप्त होने वाली परमशान्ति का भी साधक को रस नहीं लेना चाहिए; क्योंकि उस शांति में रस लेने से स्मरण- चिन्तन की निरन्तरता नहीं रह सकती। उसका मन उस शान्ति का रस लेने में लग जाता है, इस कारण स्मरण में शिथिलता आ जाती है। प्रेम की वृद्धि में भी रुकावट आ जाती है। इस कारण स्मरण में स्वाभाविकता नहीं रहती।
कर्तव्य कर्म भी उस कार्य को भगवान का समझ कर उनकी प्रसन्नता के लिये निष्काम भाव से सुंदरता पूर्वक पूरी शक्ति लगाकर ही करना चाहिये। इस भाव से कार्य के अन्त में प्रियतम नाम और नामी की मधुर स्मृति अपने-आप उदय होती है, उसमें किसी प्रकार का परिश्रम नहीं होता।
कर्म करने की और उसके फल की आसक्ति साधन में अत्यंत बाधक है। उस आसक्ति की निवृत्ति उपर्युक्त भाव से कार्य करने पर तथा भगवान के नामरूप की प्रेमपूर्वक स्मृति से होती है।
कामना की पूर्ति के सुख का लोभ रहते हुए कोई भी साधक प्रेमी, योगी और ज्ञानी नहीं बन सकता। वर्तमान में जो साधक गण योग, ज्ञान और प्रेम से वञ्चित देखे जाते हैं, उसका खास कारण यही है कि वे भगवान के नाम-स्मरण आदि सभी साधन कामना पूर्ति के लिये करते हैं, निष्काम भाव से नहीं करते। इसलिये राग द्वेष से रहित होकर विश्वासपूर्वक एकमात्र प्रेम की प्राप्ति के उद्देश्य से तत्परता के साथ साधनपरायण होना चाहिये।
भगवान के प्रेम की लालसा अन्य कामनाओं के त्याग से ही पुष्ट होती है, अतः कामना के नाश के लिये भगवान की शरण लेना परम आवश्यक है।
श्री जयदयाल जी गोयंड का कहते हैं सांसारिक सुख की प्राप्ति तो पशु-पक्षी आदि अन्य योनियों में भी हो सकती है, अतः वह विवेक सम्पन्न मनुष्य-जीवन का उद्देश्य नहीं है। इसकी प्राप्ति तो प्रभु की कृपा से उनका स्मरण- चिंतन करके उनका प्रेम प्राप्त करने के लिये ही हुई है।
 
 
                                मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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