इन चारों मार्गो से ईश्वर तक पहुंचा जा सकता है। साधक को कभी भी निराश नहीं होना चाहिए। साधक को हमेशा एक ही उद्देश्य रखना है, भगवत प्राप्ति। भगवत प्राप्ति की उत्कंठा के साथ किए जाने वाले सभी साधन एक समान होते हैं। साधक को हतोत्साहित नहीं होना है। हां अपनी पूरी सामर्थ्य के साथ साधन में रत होना है।
साधन स्वयं होता है। साधक कल भाव चेष्टा तत्परता और उत्कंठा में कमी नहीं आने देना चाहिए।
सिद्ध योग में सिद्ध कृपा से प्राप्त शक्ति को सिद्ध भगवान की प्राप्ति के लिए ही लगा दिया जाए तो वह अपनी प्राप्ति करा देते हैं।
भगवत प्राप्ति सबसे सुगम मार्ग है। साधक अपने अनिष्ट करने वाले के विषय में भी बुरा नहीं सोचता। उसके मन में यह भाव आता है कि अनिष्ट करने वाला उसके पिछले पापों का फल देकर उसे शुद्ध कर रहा है।
सिद्ध भक्तों के मन में प्राणी मात्र के लिए मैत्री और दया का भाव रहता है। सिद्ध भक्त अच्छी आत्माओं के लिए मैत्री का भाव और दुखी और पाप आत्माओं के लिए करुणा का भाव रखता है।
भक्त ममता से रहित रहता है। सिद्ध भक्त निरअहंकार होता है। सुख और दुख में सम रहता है, अपराध करने वालों को भी दंड देने की इच्छा नहीं रखता और क्षमा देने वाला होता है।
मनचाही चीजों से खुश नहीं होता और अनचाही चीजों से दुखी नहीं रहता। वह संतुष्ट रहता है।
परमात्मा कभी भी हमसे दूर नहीं हैं, लेकिन इस वास्तविकता का जिसने अनुभव कर लिया वह योगी कहलाता है। सिद्धयोग में धीरे-धीरे मन बुद्धि वश में आ जाते हैं। साधक दृढ़ निश्चय बनता है। उसे गुरु रुप ईश्वर के साथ नित्य सिद्ध संबंध का अनुभव रहता है।
जब साधक एकमात्र भगवत प्राप्ति को ही अपना उद्देश्य बना लेता है। तो वह खुद भगवान का हो जाता है। उसके मन बुद्धि भी अपने आप भगवान में लग जाते हैं।
स्वाभाविक प्रेम प्रकट होता है, धीरे-धीरे विकार खत्म होने लगते हैं। Guru में पूरी तरह मन और बुद्धि नहीं लगने से कभी-कभी अवरोध आते हैं। लेकिन वह धीरे-धीरे गुरु निष्ठा से हट जाते हैं। शरीर मन बुद्धि इंद्रियां साधक के लिए भगवान की देन होती है। इसलिए उसे शरीर के निर्वाह की परवाह नहीं होती। उसकी इच्छा और कामना धीरे-धीरे कम होती जाती है। भगवत प्राप्ति में उसका मन रम जाता है। भेद और पक्षपात से रहित हो जाता है। कुछ मिले या ना मिले, कुछ आया चला जाए, उसके चित्त में दुख चिंता शोक रूपी हलचल खत्म होने लगती है। ऐसा भक्त और सिद्ध योगी शुभ और अशुभ का परित्याग कर देता है। मान और अपमान से दूर हो जाता है। निरंतर भगवत नाम चलता रहता है। इसलिए वह मोनी यनीं मननशील हो जाता है। वह संतुष्ट होने लगता है। निंदा स्तुति से दूर होने लगता है। अनिकेत हो जाता है। स्थिति हो जाता है। जिसने भगवान को प्राप्त कर लिया है वह वास्तव में नर कहलाता है।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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