Published By:धर्म पुराण डेस्क

इन 4 श्लोकों में छिपा है, भागवत का सार (चतुःश्लोकी भागवत)

श्रीमद्भागवत में संपूर्ण जीवन का सार छिपा हुआ है| आज हम आपको बताते हैं भागवत के वह 4 श्लोकों जिनमें संपूर्ण सृष्टि का रहस्य समाहित है|

Chatuh shloki bhagavatam (चतुःश्लोकी भागवत)

॥ चतुःश्लोकी भागवत ॥

श्रीभगवानुवाच ..

1. अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम्।

पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ॥

2. ऋतेऽर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।

तद्विद्यादात्मनो मायां यथाऽऽभासो यथा तमः ll

3. यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।

प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम्॥

4. एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः।

अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा॥

श्रीभगवानुवाच ..

(1). अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम्।

पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ॥

भावार्थ:- श्री भगवान कहते हैं – सृष्टि के आरम्भ होने से पहले केवल मैं ही था, सत्य भी मैं था और असत्य भी मैं था, मेरे अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं था। 

(1). सृष्टि का अंत होने के बाद भी केवल मैं ही रहता हूँ, यह चर-अचर सृष्टि स्वरूप केवल मैं हूँ और जो कुछ इस सृष्टि में दिव्य रूप से स्थिति है वह भी मैं हूँ, प्रलय होने के बाद जो कुछ बचा रहता है वह भी मै ही होता हूँ।

हम सब जानते हैं कि सृष्टि परमात्मा से आरंभ होती है और परमात्मा में ही विलीन हो जाती है| इस लोक से स्पष्ट है कि सृष्टि के पहले परमात्मा के अतिरिक्त कोई नहीं रहता सिर्फ एक परमात्मा ही सारे संसार में मौजूद रहता है, उसी परमात्मा से सृष्टि का उदय होता है, सृष्टि का विस्तार होता है और बाद में सृष्टि उसी परमात्मा में विलीन हो जाती है| 

(1) O Brahma! I, the Personality of Godhead, was existing before creation, when there was nothing but Myself. There was no material nature, the cause of this creation. That which you see now is also I, the Personality of Godhead, and after annihilation what remains will also be I, the Personality of Godhead.

(2). ऋतेऽर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।

तद्विद्यादात्मनो मायां यथाऽऽभासो यथा तमः ॥

(2). भावार्थ:- मूल तत्त्व आत्मा जो कि दिखलाई नहीं देती है, इसके अलावा सत्य जैसा जो कुछ भी प्रतीत देता है, वह सभी माया है, आत्मा के अतिरिक्त जिसका भी आभास होता है वह अंधकार और परछाई के समान मिथ्या है।

यहां पर भगवान ने आत्मा को आदि और अनंत बताया आत्मा शाश्वत है चिरस्थाई है इसका नाश नहीं होता| श्रीमद्भगवद्गीता में भी आत्मा के सनातन स्वरूप का वर्णन भगवान करते हैं|  यही आत्मा हम सब का मूल है इसके अतिरिक्त जो भी कुछ है वह सब माया है माया के अतिरिक्त कुछ भी नहीं|

(2) O Brahma! That which appears to be of value, but has no relation to Me, has no reality. Know that it is My illusory energy, a reflection, which appears in darkness.

(3). यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।

प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम्॥

(3). भावार्थ:- जिस प्रकार पंच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) संसार की छोटी या बड़ी सभी वस्तुओं में स्थित होते हुए भी उनसे अलग रहते हैं, उसी प्रकार मैं आत्म स्वरूप में सभी में स्थित होते हुए भी सभी से अलग रहता हूँ।

परमात्मा सभी में है|  लेकिन अलग-अलग होते हुए भी परमात्मा एक ही है|  जैसे सोना सब में होता है लेकिन प्रमाण और आकार में अलग-अलग होता है उसी प्रकार परमात्मा सभी में होते हुए भी प्रमाण और आकार के भेद के कारण अलग अलग नजर आता है|

(3) O Brahma! Please know that the universal elements enter into the cosmos; similarly, I Myself also exist within everything created, and at the same time I am outside of everything.

(4). एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः।

अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा॥

(4). भावार्थ:- आत्म-तत्व को जानने की इच्छा रखने वालों के लिए केवल इतना ही जानने योग्य है कि सृष्टि के आरम्भ से सृष्टि के अंत तक तीनों लोक (स्वर्गलोक, मृत्युलोक, नरक लोक) और तीनों काल (भूतकाल, वर्तमानकाल, भविष्यकाल) में  सदैव एक समान रहता है, वही आत्म-तत्त्व है।

भगवान कहते हैं कि मनुष्य के अंदर वह आत्मा हमेशा मौजूद रहती है| उसी आत्मा को जो जान ले वही परम ज्ञानी हो जाता है|

आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए सिर्फ इतना जानना काफी है कि तीनों काल में यह आत्मा शाश्वत रहती है सनातन रहती है चिरस्थाई रहती है| इस आत्मा का विनाश नहीं होता| यही आत्मा परमात्मा है और यही हम सब का आधार है|

(4) A person searching after the Supreme Absolute Truth, the Personality of Godhead, must certainly search in all circumstances, in all space and time, and both directly and indirectly.


 

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