ये चातुर्मास केवल देव शयन की पौराणिक मान्यता नहीं है अपितु प्राणी के प्रकृति से एकाकार होने की महत्वपूर्ण अवधि है ।
आधुनिक विज्ञान भी अनुसंधान के बाद भारत की इस परंपरा के प्रावधान से आश्चर्यचकित है कि यदि इन चार माह में निर्देशित चर्या के अनुकूल जीवन जिया जाय तो प्राणी पूरे वर्ष भर सशक्त और आत्मविश्वास से भरा रहेगा। उसमें अद्भुति रोग प्रतिरोधक क्षमता रहेगी। परिवार और समाज में आत्मीय संबंध होंगे सो अलग।
भारत में चातुर्मास एक प्राचीन और पौराणिक परंपरा है। इसका आरंभ सतयुग में राजा बलि के समय हुआ था। राजा बलि महर्षि कश्यप के वंशज और पुराण प्रसिद्ध हिरण्यकशिपु के प्रपौत्र थे। पौराणिक मान्यता के अनुसार इन चाह माह की अवधि में नारायण पाताल लोक में रहते हैं।
कहीं कहीं यह उल्लेख है कि नारायण शयन निद्रा में रहते हैं, और कहीं यह उल्लेख आया कि नारायण लक्ष्मी सहित अज्ञातवास में रहते हैं । जो हो लेकिन तीनों उल्लेखों में यह बात स्पष्ट है कि इस चार माह की अवधि में कोई व्यक्तिगत और पारिवारिक शुभ कार्य नहीं होते।
विवाह का आयोजन हो, गृह प्रवेश का हो, नये संस्थान आरंभ करने का हो, कोई सुख सुविधा सूचक नयी वस्तु क्रय करने आदि कार्य इस अवधि में नहीं किये जाते। लेकिन दूसरी ओर यह बात आश्चर्यजनक है कि इन चार माह में शुभ कार्य तो वर्जित होते हैं किंतु अधिकांश महत्वपूर्ण तीज त्यौहार इन्हीं चार माह की अवधि में आते हैं।
गुरु पूर्णिमा जैसा आध्यात्मिक, प्राकृतिक और व्यक्तित्व के महत्व की साधना के पर्व के हरतालिका तीज, रक्षाबंधन, गणेशोत्सव ऋषि पंचमी, नागपंचमी, छट पूजन, अहोई अष्टमी, पितृपक्ष नवरात्रि, विजयादशमी, दीपावली, गोवर्धन पूजा, भाईदूज, और शरद पूर्णिमा जैसे उत्सव इसी अवधि में आ जाते हैं । इन चार माह में जितने महत्वपूर्ण त्यौहार आते हैं उतने पूरे वर्ष नहीं।
एक प्रश्न सहज उठता है कि यदि ये चार माह में देवशयन या देव अज्ञातवास के चलते व्यक्तिगत और पारिवारिक प्रसन्नता के आयोजनों न करने की बात कही गई है तो इतने महत्वपूर्ण त्योहारों का प्रावधान इन चातुर्मास में क्यों किया गया है ।
यदि इन चार माह में शुभ कार्यों के लिये रुकने का निर्देश है तो इन तीज त्यौहारों के लिये भी रोका जा सकता था । पर इन चार माह में तीज त्यौहार तो बड़ी उमंग उत्साह और सामूहिक रूप से से मनाये जाने के निर्देश हैं ।
इस प्रश्न का उत्तर आधुनिक शरीर विज्ञान, समाज विज्ञान और प्रकृति के वैज्ञानिक अनुसंधान में मिलता है।
व्यक्तित्व विकास, स्वास्थ्य सुन्दर रहने और प्रकृति के संरक्षण के उपायों पर पूरी दुनिया में निरंतर शोध हो रहे हैं । भारत में भी और भारत के बाहर भी । भारतीय और पश्चिमी अनुसंधान में एक आधारभूत अंतर है । भारतीय चिंतन, शोध और अनुसंधान उत्थान या पतन के मूल कारण पर केन्द्रित हैं । कारण का निवारण और जीवन के केन्द्रीभूत आधार को सशक्त करने पर जोर देता है ।
जबकि पश्चिमी अनुसंधान समस्या के लक्षण पर केंद्रित रहता है । यह समस्या से लड़कर विजयी होने पर ध्यान देता है । भारतीय मनीषियों ने जीवन को श्रेष्ठ और दीर्घजीवी बनाने के लिये प्रकृति से संपर्क गहरा अध्ययन किया । प्रकृति से अंतरंगता और उसके अनुरूप ही जीवन के विकास विस्तार पर शोध किया है । इसके लिये स्वत्व से साक्षात्कार होना आवश्यक है ।
उनका निष्कर्ष है कि यदि मनुष्य को स्वत्व का भान होगा तो ही वह परिवार समाज और राष्ट्र को सम्मानित कर सकेगा । स्वत्व से साक्षात्कार के लिये ये चार माह सर्वाधिक उपयुक्त हैं। चूँकि इन चार माह में प्रकृति के प्रत्येक आयाम का स्वरूप मुखर होता है । उसे समझना और समझ कर एकत्व स्थापित करना सबसे सरल होता है ।
ये चार माह आमोद प्रमोद या व्यक्तिगत आयोजन में समाप्त न हो जायें इसलिए व्यक्तिगत आमोद प्रमोद या उत्सव से रोका गया और ऐसे तीज त्योहार की परंपरा स्थापित की गई उसमें प्राणी का प्रतिभा का विकास हो, सामूहिकता बढ़े । इसका आरंभ मन के संतुलन से होता है ।
मन का संतुलन विवेक को जागृत करता है और विवेक जागरण से स्वत्व से साक्षात्कार होता है। और स्वत्व के जागरण से ही व्यक्ति संसार में अपनी प्रतिभा स्थापित कर पाता है। इसलिए इन चार माह में तीज त्यौहार के आयोजन प्रक्रिया व्यक्ति को तन, मन, ज्ञान, प्रतिभा, प्रज्ञा और मेधा के मूल को सक्रिय करती है, जाग्रत करती है । यही उसके स्वाभिमान संपन्न जीवन की प्रगति में सहायक होती है ।
शरीर की अतिरिक्त श्रम साधना, समाज में संपर्क सहयोग वृद्धि से भरा है चातुर्मास । इसका लाभ पूरे वर्ष मिलता है । व्यक्ति निरोग रहता है, सतत सक्रिय रहता है, परिवार समाज में स्नेह सम्मान प्राप्त करता है । मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो सभी तीज त्यौहार व्यक्तिगत क्षमता और पारस्परिक संबंधों में आत्मीयता बढ़ाने वाले हैं। इसके साथ इन तीज त्योहारों को प्रकृति के विभिन्न आयामों की पूजन से जोड़ा ताकि समाज प्रकृति का दोहन तो करे पर शोषण न करे। इस भाव से प्रकृति दीर्घजीवी होगी । जो जीवन को दीर्घजीवी बनाएगी।
चार माह में प्राकृतिक परिवर्तनों के अनुरूप ही समाज, परिवार और व्यक्ति को समृद्ध करने के उपायों का ही प्रबंध किया है। ये चार माह दो ऋतुओं की अवधि है। एक वर्षा ऋतु और दूसरी शरद ऋतु। प्राणी देह पर इन ऋतुओं का बहुत गहरा और अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। इसलिये त्योहारों की परंपरा भी दो प्रकार की होती है।
पहले वर्षा ऋतु आती है। वर्षा ऋतु में प्राणी ही नहीं अपितु पूरी प्रकृति में अग्नि और आकाश तत्व थोड़ा कम एवं जल तथा पृथ्वी तत्व प्रभावित होता है। इसीलिए वर्षा ऋतु में धरती का कण कण अंकुरित होने लगता है। यह प्रभाव प्राणी के शरीर पर भी पड़ता है। यह प्रभाव भी दो प्रकार के होते हैं। एक पाचन तंत्र थोड़ा कमजोर होता है। और दूसरा भावनाओं का अतिरेक। जल और पृथ्वी तत्व की अधिकता से धरती के कण कण में ही अंकुरण नहीं होता, प्राणी देह में भी अंकुरण होता है।
देह के भीतर और की कोशिकाओं में अनेक ऐसे वायरस जन्म लेने लगते हैं जो स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालते हैं। त्वचा पर भी फंगस जैसा कुछ होने लगता है। पृथ्वी तत्व की प्रबलता से जहां जीव जन्म लेते हैं वहीं जल तत्व की प्रबलता से मन में तरंग उठतीं हैं। वर्षा ऋतु में हम केवल जल तरंगों को अठखेलियां करते ही नहीं देखते हमारा भी मानों अठखेलियां करता है ।
जल का संबंध मन से होता है इसलिये मन में चंचलता बढ़ती है । मन की इस चंचलता के कारण ही वर्षा ऋतु में भजिये परांठे जैसा कुछ नया खाने की इच्छा होती है । प्रेम-श्रृंगार की ओर भी मन दौड़ता है । इसलिए इन त्योहारों के माध्यम से शरीर को संपुष्ट बनाने और मन की तरंगों का सार्थक सकारात्मक दिशा देने के प्रबंध इन त्योहारों के माध्यम से किये गये हैं ।
वर्षा ऋतु में सबसे महत्वपूर्ण और पहला बड़ा त्यौहार गुरु पूर्णिमा का है । यह गुरु से भेंट, गुरु पूजन, और गुरुवाणी सुनने का अवसर है । गुरु मिलन या गुरु स्मरण से मन संतुलित होता है, स्वयं का विकास स्वयं से परिचय होता है । इससे मन सात्विक होता है, सकारात्मक भाव उत्पन्न होंगे , मन का आवेग शांत होगा।
यह सृजनात्मक ऊर्जा ही व्यक्ति को निर्माण और सकारात्मक कार्यों की ओर प्रेरित करेगी । यदि वर्षा ऋतु के आरंभ में व्यक्ति सद् मार्गदर्शन द्वारा समेष्ठि से जुड़ गया तो वह पूरे विश्व को अपना कुटुम्ब मानेगा, सभी प्राणियों के बीच अपने नैसृगिक संबंध खोजेगा । इसके तुरन्त बाद श्रावण मास आरंभ होता है जिसमें पवित्र नदियों का जल लाकर शिव अर्चना का विधान है ।
वर्षा ऋतु में जहां मन में कुछ उमंग आती है तो शरीर में आलस्य । कल्पना कीजिए मन में उमंग होगी और शरीर में आलस्य होगा तो शारीरिक-मानसिक दोनों प्रकार की विकृतियाँ उत्पन्न होगी। जो परिवार और समाज दोनों में विकृति उत्पन्न करेगी। इसलिए श्रावण मास में पवित्र अथवा समीपस्थ नदी जल तलाकर भगवान शिव की अर्चना करने का प्रावधान जोड़ा ।
यह पैदल चलकर लाना होता है, स्वयं उठाकर लाना होता है । शरीर विज्ञान ने एक नया शोध किया है । वह यह कि यदि वर्षा ऋतु में केवल घर में बैठकर भजिये पुड़ी खाने से पाचन तंत्र बिगड़ता है, पेट बढ़ता है, फेट बढ़ता है । इसके लिये श्रम और संयम दोनों आवश्यक है इसलिये पूरे श्रावण मास को शिव आराधना से जोड़ा गया, नदियों का जल लाकर चढ़ाने से श्रम से जोड़ा और घर के भीतर रहने वाली महिलाओं को व्रत उपवास से जोड़ा ।
वर्षा ऋतु में मनुष्य को वन और पर्वत पर जाने को निषेध किया गया है । यह उनके अपने जीवन की सुरक्षा के लिये तो आवश्यक है ही साथ ही वन्य जीवों की सुरक्षा के लिये भी आवश्यक है । वर्षा ऋतु प्राणियों के प्रचनन की ऋतु है । पशु पक्षी दोनों की ।
मनुष्य की उपस्थिति बाधा उत्पन्न करती है । इसलिये वन पर्वत पर नहीं जाना, पूजन भी घर में करना । इसके साथ श्रावण मास में में वृक्ष कटाई को भी निषेध किया गया है । पेड़ पौधे दोनों में श्रावण मास में शाखा कोपल अंकुरित होतीं हैं । इसलिये पेड़ पौधे, पशु पक्षी सबका विकास हो, मनुष्य इसमें बाधक न बनें और अपनी ऊर्जा का उपयोग अन्य दिशा में करे।
श्रावण मास में शीतला अष्टमी, पुत्रदा एकादशी, नागपंचमी आदि त्यौहारों में भी शरीर साधना, वनस्पति और प्राणी मात्र की सेवा सुरक्षा का संदेश है तो रक्षा बंधन पर पारिवार और समाज में बेटी सम्मान का संदेश है । रक्षाबंधन केवल भाई बहन के बीच ही नहीं होता यजमान और पुरोहित के बीच, राजा और प्रजा के बीच भी रक्षाबंधन होता है जो संगठन सहयोग और परस्पर सुरक्षा का संदेश है ।
बेटियाँ विवाह के बाद घर से दूर न हो जायें विवाह के बाद भी वे भी परिवार का अंग हैं, यह संदेश देने के लिये ही उन्हें लिवाने भेजा जाता है । समाज के बंधुओं को परस्पर आवश्यकता पड़ने पर सहयोग सुरक्षा का दायित्व भी समाज जनों का है यह संदेश भी चतुर्मास के बीच आने वाले रक्षाबंधन से है। रक्षाबंधन के ठीक अगले दिन भुजरियों में पूरे गांव नगर परिचितों के बीच शुभकामना का आदान प्रदान, इसमें पुरानी सभी शिकवा शिकायत दूर करके गले मिलने, बड़ो के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेने की परंपरा विकसित की गयी ।
मित्रों में स्नेह मिलन और छोटो में बड़ो का सम्मान करने का संस्कार देता है भुजरियाँ । भुजरियों के बाद जन्माष्टमी । भगवान कृष्ण का जन्मोत्सव तो है ही विशेषकर मटकी फोड़ स्पर्धा में शारीरिक क्षमता और परस्पर सामंजस्य के विकास का संदेश है । मटकी फोड़ स्पर्धा में वही टीम सफल होती है जिसमें परस्पर सामंजस्य हो और शारीरिक संतुलन और क्षमता होती है ।
पहले बच्चों की मल्ल युद्ध स्पर्धा का आयोजन भी इस दिन होता था । जो समय के साथ हम भूल गये । मल्ल युद्ध स्पर्धा की परंपरा बच्चों की मटकी फोड़ दिवस पर और बड़ो की नागपंचमी को करने की परंपरा रही है जो आधुनिकता की दौड़ में खो गईं । समाज संगठन और संतुलन के लिये गणेशोत्सव का महत्व भी किसी से छिपा नहीं है । यह परंपरा भी लुप्त हो गयी थी जो अब पुनः लोकप्रिय हो रही है ।
इस चातुर्मास में दूसरी ऋतु शरद है । वर्षा ऋतु के श्रावण और भाद्रपद माह में जहाँ समाज अपने परिवार, गाँव और परिचितों के संस्कार संगठन पर जोर दिया गया है तो शरद ऋतु का आरंभ पितृपक्ष से होता है । भारत में जीवन शैली का विकास केवल सीमित परिवार हम दो हमारे दो तक ही नहीं है । कुटुम्ब और जो पूर्वज दुनिया से चले गये उन्हें भी स्मरण करने की परंपरा है ।
चातुर्मास की दूसरी शरद ऋतु में दो प्रकार के प्रावधान हैं । एक साधना का और दूसरा पूरे समाज के एकाकार होंने का । पितृ पक्ष के पूरे पन्द्रह दिन अपने सांसारिक कार्यों के साथ समस्त कुटुम्बी जनों को स्मरण करने की अवधि के हैं ।पूरा कुटुंब एकत्र होकर पूर्वजों का स्मरण वह भी व्यवस्थित दिनचर्या के साथ, सूर्योदय से पूर्व उठना नदी तालाब जाना, दिवंगत परिजनों की पसंद के भोजन की तैयारी करना अर्थात पूर्वजों के प्रति आभार, मर्यादा पूर्ण दिन चर्या के साथ अपनी मन पसंद का नियमन वह भी प्रसन्नता पूर्वक।
इसके तुरंत बाद शारदीय नवरात्रि चिकित्सा विज्ञान में कायाकल्प की अवधि है । इसमें आरंभिक चार आहार को धीरे धीरे कम करना पांचवे दिन एकदम निराहार और फिर अगले चार दिन धीरे धीरे सामान्यता की ओर बढ़ना। नवें दिन पूर्णाहार। कायाकल्प की इस पद्धति से मानसिक, बौद्धिक और शारीरिक तीनों प्रकार की शक्ति का विकास होता है ।
आंतरिक शक्ति की अनुभूति का अद्भुत प्रयोग है इस ऋतु में कायाकल्प । जब व्यक्ति व्यक्ति मानसिक, बौद्धिक और शारीरिक तीनों प्रकार की शक्ति संपन्न होगा तभी तो संभव है विजय अभियान जो हम दशहरा उत्सव के रूप में मनाते हैं ।
शरद पूर्णिमा और दीपोत्सव की तैयारी । विश्व में दीपावली एक मात्र ऐसा त्यौहार है जिसमें समाज के सभी वर्गों, व्यक्तियों की सहभागिता होती है । साफ सफाई का काम, रंगाई पुताई का काम, दिये बनाना, रुई की बाती, तेल घी का विक्रय, नये वस्त्र, नये आभूषण, आदि भला ऐसा कौन-सा शिल्प, कौन सा सेवा कार्य, कौन सी वस्तु व्यापार आदि है जिसकी सहभागिता दीपावली में नहीं होती ।
धन्वन्तरि जयंती से भाई दूज के इन पांच दिनों में समाज के सभी व्यक्तियों और वर्गों के साथ गोधन, गजधन, तथा प्रकृति के समस्त आयामों की सहभागिता होती है दीपावली उत्सव में। और इसके बाद देवउठनी एकादशी पर इस चातुर्मास का समापन।
हम सामाजिक और सामूहिक आयोजनों में उत्कृष्टता तभी ला सकेंगे जब व्यक्तिगत रुचि पसंद से ऊपर होंगे । यदि मन संतुलित होगा, आंतरिक शक्तियों का आभास होगा तभी तो हम अपने स्वत्व से परिचित हो सकेंगे और अपना का, अपने परिवार का, अपने समाज का और अपने राष्ट्र का गौरव बढ़ा सकेंगे ।
इस चातुर्मास में प्रकृति का कोई ऐसा प्राणी नहीं जिसके महत्व पर तिथि न हो, नाग पूजा से लेकर हाथी पूजा तक सभी प्राणियों से संपर्क होता है तो छोटे छोटे पौधों से लेकर फसल के एक एक आयाम एक एक वृक्ष से संपर्क पूजन के बहाने उनके संरक्षण का संदेश है ।
विचार करके देखिये कि यदि सभी प्राणी सुरक्षित रहेंगे, व्यक्ति के संपर्क में रहेंगे, सभी फसलों पर विशेष ध्यान दिया जायेगा और सबसे बड़ी बात कि व्यक्ति अपने स्वास्थ्य उन्नयन और सामाजिक संपर्क सशक्त करेगा तो कितना सुन्दर संसार बनेगा । यही साधना और संदेश का कालखंड है चातुर्मास
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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