 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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'मेरा शत्रु महान सेनानी है। मैंने उन्नीस साल तक उसके विरुद्ध युद्ध का संचालन किया, परंतु उसकी शक्ति उत्तरोत्तर बढ़ती ही गयी।' बादशाह औरंगजेब राजपूतों का रक्त और वह भी विश्व के सर्वश्रेष्ठ मानधनी सिसोदिया कुल का- जहाँ भी उसने अपने को प्रकट किया, उसका शौर्य अदम्य रहा है।
महाराज सज्जन सिंह इसी कुल के थे, जिन्होंने वि०सं० 1376 में चित्तौड़ छोड़कर दक्षिण भारत को अपना निवास बनाया।
भोंसला जाति आरम्भ में राणा कही जाती थी और वह महाराज सज्जन सिंह की ही सन्तति है। महारानी जीजाबाई की कुक्षी से इसी कुल में शिवाजी का जन्म हुआ। जन्म से शूरवृत्ति शिवाजी 'मावली' बालकों के साथ उनकी टुकड़ियाँ बनाकर युद्ध के खेल ही खेलते।
माता जीजाबाई जैसी वीर-माता ने उन्हें पुराणों की महान गाथाओं से प्रोत्साहित किया। दादाजी कोंडदेव-जैसे परमनीतिज्ञ एवं सूरमा के संरक्षण में उन्होंने शस्त्र शिक्षा प्राप्त की और समर्थ स्वामी रामदास-जैसे लोकोत्तर महापुरुष के करों की अभय छाया उन्हें प्राप्त हो गयी।
देश पर, धर्म पर, गायों पर, ब्राह्मणों पर, मंदिरों पर, सती नारियों पर और असहाय जनता पर जो अत्याचार निरंकुश यवन शासकों द्वारा हो रहे थे, शिवाजी का वीर हृदय उसे सह नहीं सका। युवा होते-न-होते उन्होंने अपने बचपन के मावली-शूरों का नेतृत्व संभाला और धर्म, राष्ट्र एवं संस्कृति के परित्राण के लिये 'भवानी' (शिवाजी की तलवार) की शरण ली।
शिवाजी के पिता शाहजी बीजापुर नवाब के दरबारी सामन्त थे; किंतु शूर शिवाजी अन्यायी यवन को मस्तक झुका दें, यह संभव नहीं था। शिवाजी ने बीजापुर के दुर्ग पर आक्रमण करके अधिकार करना प्रारम्भ किया। शाहजी को नवाब ने कैद कर लिया।
धुरंधर राजनीतिज्ञ शिवाजी ने सीधे दिल्ली से पत्र व्यवहार किया और फल यह हुआ कि शाहजहां ने शाहजी को अपना सामन्त घोषित कर दिया। बीजापुर नवाब में इतना दम नहीं था कि दिल्ली दरबार के सामन्त को कैद रख सकता ।
बीजापूर - नवाब का सेनापति अफजल खान सेना सजाकर आया। धूर्तता पूर्वक उसने संधि के लिये शिवाजी को बुलाया। दोनों अकेले मिलने वाले थे। यवन सेनापति ने मिलते ही तलवार उठाई, परन्तु शिवाजी अबोध नहीं थे। यवनों के विश्वासघात से परिचित थे। उनके हाथ के बघनखे ने अफजल खान की कोख फाड़ दी।
वन मे छिपे मराठे सैनिक टूट पड़े। यवन-सेना परास्त हुई। बीजापुर ने विवश होकर संधि की। शिवाजी ने मुगलों के किले जीतने प्रारम्भ किये। दिल्ली से बड़ी भारी सेना के साथ शाइस्ता खाँ भेजा गया, परंतु वह अपने ही गर्व और प्रमाद से पराजित हुआ। उसकी छावनी में घुसकर मराठों ने आक्रमण किया और शिवाजी की तलवार से उसकी चार अंगुलियां कट गई।
औरंगजेबने राजकुमार मुअज्जम और जयसिंह को भेजा शिवाजी के विरुद्ध हिंदू परस्पर ही लड़े, यह महाराज शिवाजी को अभीष्ट नहीं था। सेनापति जयसिंह के परामर्श से वे दिल्ली जाने को प्रस्तुत हो गये। औरंगजेब ने उनका उचित सत्कार नहीं किया। दरबार में पहुँचने पर शिवाजी यह अपमान कैसे सह लेते। धूर्त औरंगजेब ने उन्हें कैद कर लिया, पर कौशल से वे निकल आये।
महाराष्ट्र लौटने पर रायगढ़ दुर्ग में सन 1674 ईस्वी में महाराजा शिवाजी का राज्याभिषेक हुआ। बीजापुर नरेश ने कुछ जिले देकर उनसे मित्रता की। दक्षिण के शासकों ने उन्हें अपना अग्रणी स्वीकार किया। महाराज शिवाजी का ध्येय था 'हिन्दवी स्वराज्य का संस्थापक और उसके लिये वे सतत संलग्न रहे।
खफीखाँ लिखते हैं कि 'शिवाजी ने कभी किसी मस्जिद, कुरान अथवा किसी धर्म को मानने वाली स्त्री को हानि नहीं पहुँचायी। यदि उनके हाथ कोई कुरान की प्रति लग जाती तो वे उसे तुरंत आदरपूर्वक किसी मुसलमान को दे देते।' छत्रपति शिवाजी महाराज के उद्योग को साम्प्रदायिक या संकीर्ण मानने वालों को मुसलमान लेखक का यह मत पढ़ लेना चाहिये।
कहा जाता है कि किसी युद्ध में सैनिकों ने एक परम सुन्दरी यवन राजकुमारी को बंदी करके महाराज के सम्मुख उपस्थित किया । महाराज कुछ क्षण उसकी ओर देखकर बोले – 'यदि मेरी माता ऐसी सुंदर होती तो मैं इतना कुरूप न होता।' फिर सैनिक को डाँटकर कहा कि 'इसको सुरक्षित इसके घर पहुँचा दो।' उन्होंने उसे आदरपूर्वक उसके पिता के समीप भिजवाया।
पर-स्त्री मात्र में मातृभाव का यह उज्ज्वल आदर्श! महाराज का किसी धर्म से द्वेष नहीं था। उन्होंने तो अत्याचार एवं अधर्म के विरुद्ध तलवार उठाई थी । उनका उद्योग राष्ट्रीय संस्कृति की सुरक्षा के लिये था ।
53 वर्ष की अवस्था में रायगढ़ दुर्ग में ही उन हिंदूपति ने शरीर छोड़ा। उनका साम्राज्य - वह तो कभी उनका नहीं था। उसे तो उन्होंने अपने गुरु समर्थ स्वामी रामदास के चरणों पर चढ़ा दिया था और समर्थ के साम्राज्य की ही प्रतीक है वह गैरिक ध्वजा। महाराज एक प्रतिनिधि मात्र थे गुरुदेव के और इस रूप में महाराज एक निस्पृह महान कर्मयोगी हैं इतिहास के पृष्ठों में ।'
राखी हिन्दुआनी, हिन्दुआन को तिलक राख्यो, स्मृति पुरान राख्यो बेद विधि सुनी मैं।
राखी रजपूती, राजधानी राखी राजन की, धरामें धरम राख्यो, गुन राख्यो गुनी मैं ॥
'भूषन' सुकवि जीति हद्द मरहट्टन की, देश-देश कीरति बखानी तब सुनी मैं।
साहके सपूत सिवराज! समसेर तेरी, दिल्ली दल दाबिके दिवाल राखी दुनी मैं ॥
 
 
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