भोजन और भजन दोनों ही हमारे लिए आवश्यक हैं। जैसे भोजन के बिना हम जी नहीं सकते, वैसे ही भजन के बिना हमारा जीना नहीं जीने के बराबर है। जैसे भोजन हमारे बाह्य शरीर का पोषक है, वैसे ही भजन हमारे आंतरिक शरीर का पोषक है।
अपने शरीर के सर्वांगीण विकास के लिए दोनों की आवश्यकता को हृदयंगम करना चाहिए। जैसे भोजन के बिना हमारा भजन ठीक से नहीं हो सकता इसका अनुभव सभी को है, वैसे ही यदि सभी यह व्रत ले लें कि 'बिना भजन किये हम भोजन नहीं करेंगे।' तो हम सभी का संबंध भगवान से होने में देर नहीं लगेगी।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ।।
'दुःखों का नाश करने वाला योग तो यथा योग्य आहार-विहार करने वाले का, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का और यथायोग्य सोने तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है।' (गीता: 6.17)
भोजन के असंयम से ही शरीर में रोग का प्रवेश होता है, जो भजन में बाधा उपस्थित करता है।
भूखे भजन न होय गोपाला। ये लो अपनी कंठी ये लो माला॥
भोजन को ही प्रधानता देने और भजन को भूल जाने के कारण ही आज देश के विभिन्न भागों में अकाल जैसी स्थिति हो गयी है। भजन का बल महान होता है। भजन और भोजन का पारस्परिक संबंध जीवन में स्थापित करना चाहिए। जिन भक्तों ने अपने जीवन में भजन को प्रधानता दी, उन्हें कभी भोजन-संकट नहीं हुआ। यह भजन की ही प्रधानता का प्रभाव है।
स्वामी रामसुखदासजी महाराज ने कहा है कि 'भगवन्नाम के जप से, कीर्तन से प्रारब्ध बदल जाता है, नया प्रारब्ध बन जाता है; जो वस्तु न मिलने वाली हो वह मिल जाती है; जो असंभव है वह संभव हो जाता है - ऐसा संतों का, महापुरुषों का अनुभव है।
जिसने कर्मों के फल का विधान किया है उसको कोई पुकारे, बार-बार उसका नाम ले तो नाम लेने वाले का प्रारब्ध बदलने में आश्चर्य ही क्या है! ये जो भीख मांगते फिरते हैं, जिनको पेट भर खाने को भी नहीं मिलता, वे अगर सच्चे हृदय से नाम-जप में लग जायें तो उनको किसी चीज की कमी नहीं रहेगी परंतु नाम-जप को प्रारब्ध बदलने में, पापों को काटने में नहीं लगाना चाहिए जैसे अमूल्य रत्न के बदले में कोयला खरीदना बुद्धिमानी नहीं है, ऐसे ही अमूल्य भगवन्नाम को तुच्छ कामनापूर्ति में लगाना बुद्धिमानी नहीं है ।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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