Published By:दिनेश मालवीय

हालात, शब्दों के मतलब बदल देते हैं..

हाल ही में एक बड़ा रोचक प्रसंग सामने आया। मेरे एक कवि मित्र ने सन 1963 के आसपास एक कविता लिखी थी। उन्होंने कुछ दिन पहले वह कविता को फेसबुक पर पोस्ट कर लिखा कि “हम सैफिया कॉलेज के तालिबान अदब में बहुत दिलचस्पी लेते थे”। उन्होंने इसके अनेक उदाहरण भी दिए कि, किस तरह उस वक्त के शिक्षक भी अदब यानी साहित्य को किस तरह बढ़ावा देते थे। इस पर एक मुस्लिम मित्र ने बहुत रोष भरी भाषा में कमेन्ट किया कि, “उस समय तालिबान कहाँ से आ गया?” तालिब का मतलब होता है स्टूडेंट या विद्यार्थी।

जो विद्या प्राप्त करने की तलब यानी प्यास रखता है। इसका बहुवचन तालिबान हो गया। लेकिन इस इतने अच्छे शब्द का मतलब इतना बदल गया कि, अब तालिबान का मतलब आतंकवादी माना जाने लगा। जानकार लोग तो इस बात को जानते हैं कि, तालिबान का मतलब वे लोग नहीं हैं, जिन्होंने हाल ही में अफगानिस्तान की चुनी हुयी सरकार को हटाकर उस देश पर कब्जा कर लिया। 

लेकिन जिन लोगों को इस विषय में बहुत ज्ञान नहीं है, वे तालिबान का मतलब वही लगाते हैं, जो टिप्पणी करने वाले मेरे दोस्त ने लगाया। इस तरह शब्द का मतलब बिल्कुल ही उल्टा हो गया। कुछ और उदाहरण लें, तो यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो जायेगी। भारत के संविधान में आबादी के जिस वर्ग को “अनुसूचित जाति” कहा गया, उसे गांधीजी ने “हरिजन” नाम दिया था। यह शब्द बहुत लम्बे समय तक प्रयोग में आता रहा। यहाँ तक कि शासकीय समाचारों में भी इसी शब्द का प्रयोग होता था। उनके विकास के लिए स्थापित विभाग और योजनाओं के नाम भी इसी इसी नाम पर रखे गए। गांधीजी का मकसद बहुत अच्छा था। 

वह छूआछूत को मिटाना चाहते थे। उस समय इस वर्ग के लोगों के लिए आमतौर पर “अछूत” शब्द का प्रयोग होता था। गांधीजी इस शब्द को बदलना चाहते थे। इसके बदले उन्होंने “हरिजन” शब्द दिया, जिसका मतलब है, ईश्वर के प्रिय लोग। लेकिन धीरे-धीरे यह शब्द भी एक गाली जैसे हो गया। अनुसूचित जाति के लोगों ने इस पर ऐतराज़ किया और आजकल वे अपने आप को दलित कहने लगे हैं। इस तरह “हरिजन” जैसे सुंदर नाम का मतलब बदल गया। एक और शब्द है “नेता” या “नेताजी”। इसका अर्थ भी एकदम बदल गया। स्वतंत्रता आन्दोलन के समय जो लोग नेतृत्व करते थे, उन्हें नेता कहकर उनके प्रति सम्मान व्यक्ति किया जाता था। किसीको नेताजी कहा जाता था, तो उसका सीना गर्व से फूल जाता था। महान स्वतंत्रता सेनानी और आज़ाद हिन्द फ़ौज के संस्थापक सुभाषचंद्र बोस को नेताजी कहकर ही बुलाया जाता था। 

आज भी कोई उनका उल्लेख सीधा सुभाषचंद्र बोस कहकर नहीं करता। उनके नाम के पहले नेताजी लगाया जाता है- नेताजी सुभाषचंद्र बोस। आज राजनीति में जो गिरावट आयी है और सियासी लोगों ने जिस तरह अपना चरित्र गिराया है, उसके चलते आज “नेता” शब्द गाली जैसा लगने लगा है। आप किसीको नेताजी कहें तो वह बुरा मान जाता है। इस तरह इस नाम का मतलब और भाव भी बदल गया है। कुछ संबोधनों के साथ भी ऐसा हुआ है। “महोदय” शब्द का एक अच्छा उदाहरण हमारे सामने है। विधानसभाओं और लोकसभा में जब सदस्य अध्यक्ष कहते हैं, तो उनके स्वर में इस संबोधन के प्रति कोई सम्मान का भाव दिखाई नहीं देता। जब कोई “आदरणीय अध्यक्ष महोदय” कहता है, तो ऐसा लगता है, जैसे वह “आदरणीय” शब्द बहुत मजबूरी में  जबरन लगा रहा है। नाम के साथ ही कपड़ों की भी यही कहानी है। कभी खादी पहनने वाले व्यक्ति का समाज में बहुत ऊंचा स्थान होता था। खादी के वस्त्रों की बहुत प्रतिष्ठा थी। 

एक प्रसंग कहीं पढ़ा था कि, कलकत्ता में एक राजघराने की एक महिला स्वतंत्रता सेनानी को आन्दोलन करने पर गिरफ्तार कर ले जाया जाने लगा। वह बहुमूल्य ज़ेवर पहने हुयी थी। उसके सामने समस्या यह थी कि, जेल जाने से पहले वह अपने वेशकीमती गहने किसे सौंपे। उसके सभी साथी तो उसके साथ जेल जाने वाले थे। उस महिला की नज़र खादी पहने हुए एक व्यक्ति पर पड़ी, जिसे वह बिल्कुल नहीं जानती थी। उसने उस व्यक्ति को अपने पास बुलाकर सारे गहने उसे सौंप दिए।

उसके साथियों ने पूछा कि, क्या आप उस व्यक्ति को जानती हैं? महिला ने कहा कि, मैं उसे नहीं जानती, लेकिन वह खादी पहने हुए है। जो व्यक्ति खादी पहने हो, वह बेईमान हो ही नहीं सकता। वह निश्चित ही मेरे गहने मेरे घर पहुंचा देगा। इस तरह उस समय खादी के प्रति लोगों की धारणा का पता चलता है। इसके विपरीत आज खादी पहनने वाले लोगों के प्रति आम लोगों की क्या धारणा है, यह किसी से छिपा नहीं है। पहले खादी एक आन्दोलन थी और आज एक फैशन। इस तरह समय और हालात के साथ शब्दों और वस्तुओं के मतलब और भाव बदलते रहते हैं। आज हम जिन शब्दों को ब+हुत सम्मानजनक मानते हैं, आगे चलकर उनका भी यही हश्र हो सकता है।

 

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