सनातन हिन्दू धर्म का मूल आधार वेद हैं. पहले एक ही वेद था, लेकिन कालान्तर में उसके ज्ञान को बेहतर रूप से समझने में मदद के लिए, महर्षि व्यास ने उसे चार भागो में विभाजित कर दिया. वेदों में संसार का समस्त ज्ञान मौजूद है. इसमें लौकिक और पारलौकिक दोनों विषयों का इतना विशद और सूक्ष्म विवरण है, कि उन्हें समझकर जीवन को परम आनंदमयी बनाया जा सकता है. इसके बाद पारलौकिक जीवन भी पूरी तरह सुखी रह सकता है. वेदों की सूक्तियां बहुत महत्वपूर्ण हैं. इनमें जीवन के बहुत गहरे अर्थ निहित हैं. अथर्ववेद की एक सूक्ति है- शतहस्त समाहार सहस्त्रहस्त संकिर. अर्थात सैकड़ों हाथों से इकट्ठा करो और हज़ारों हाथों से बांटो. जीवन में सुखी रहने और दूसरों को सुख देने के लिए इससे सुंदर बात कहीं और देखने में नहीं आती. मूल रूप से भारत की संस्कृति और जीवन-दर्शन में समृद्धि को बहुत महत्त्व दिया गया है. गरीबी या दरिद्रता को बहुत बुरा माना गया है. जो दरिद्र है, उसे दरिद्रता से ऊपर उठने के लिए सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए. “रामचरितमानस” में दरिद्रता को सबसे बड़ा दुःख माना गया है- “नहिं दरिद्र सम दुःख जग माहीं”. हर व्यक्ति से अपेक्षा की गयी है, कि वह ईमानदारी से परिश्रम-पुरुषार्थ कर अधिक से अधिक धन-धान्य और समृद्धि अर्जित करे. जिन लोगों ने गरीबी को महिमामंडित किया है, उन्हें भारत के जीवन-दर्शन की समझ ही नहीं है. यह बात लेकिन इसके साथ कही गयी यह बात और भी महत्वपूर्ण है, कि इसे दूसरों को बांटना भी उतना ही आवश्यक है. एक हाथ से इकट्ठा करो तो हज़ार हाथों से बांटो.
इस बात को गहराई से समझने की ज़रुरत है. हज़ार हाथ से बांटने का तात्पर्य यह नहीं है, कि आप अपनी धन-सम्पत्ति यहाँ-वहाँ वैसे ही बाँटते रहिये. इसका तात्पर्य इतना ही है, कि जिसका जो दाय है, जिसका जो वाजिब हिस्सा है, वह उसे दिया जाए. आपके पास जो धन-सम्पत्ति है, उसमें आपके परिवार के किस सदस्य का कितना हिस्सा है, समाज में परोपकार के कार्यों के लिए कितना हिस्सा देना है, ज़रुरतमंद लोगों की सहायता के लिए कितना हिस्सा खर्च करना है, जो लोग आपकी सेवा में लगे हैं, उन्हें कितना उचित हिस्सा देना है, भविय के लिए कितना बचाकर रखना है, आदि का विचारकर धन-सम्पत्ति को बांटना है. इसमें दान-पुण्य भी शामिल है. पात्र व्यक्ति को ही दान देने की बात बहुत ज़ोर देकर कही गयी है. अपात्र को दिए दान का कोई फल नहीं मिलता,बल्कि नुकसान की ही ज्यादा संभावना होती है. आपके दिए हुए दान का यदि अपात्र व्यक्ति बुरे कामों में उपयोग करता है, तो उसका पाप आपके ही सिर आना है.
इसके अलावा ईशावास्योपनिषद में कही हुयी बात भी इससे आकर जुड़ जाती है, कि तेन त्याक्तिना भुन्जिता. अर्थात त्याग करते हुए भोगो. इस बात के बहुत गहरे अर्थ हैं. जीवन में सुख-संपत्ति का भोग करना बहुत आवश्यक है. लेकिन उसे विवेकपूर्वक भोगना ही इसका मर्म है. आप यह मानकर चलिए, कि आपके पास जो है, वह आपका नहीं है. आप केवल उसके ट्रस्टी हैं. संसार में जो कुछ भी है, वह ईश्वर का है. आप यहाँ से जाते समय एक तिनका भी अपने साथ नहीं ले जा सकते. शरीर से कपड़े तक उतरवा लिए जाएँगे. इसलिए धन-सम्पदा के उपयोग में इस तरह सावधानी बरती जाए, कि व्यर्थ का अपव्यय नहीं हो. पाई-पाई का पूरा सदुपयोग हो. सबकुछ ईश्वर का है, यह जुबान से कह देना बहुत सरल होता है, लेकिन दिल से ऐसा महसूस करना एकदम अलग बात है. विरले विवेकशील लोग ही इस अर्थ को ग्रहण कर धन का सही उपयोग कर पाते हैं.
इस विषय में एक सुंदर दृष्टांत मिलता है. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का निर्माण चल रहा था. पंडित मदनमोहन मालवीय एक सेठ के घर चंदा माँगने गये. तब बिजली नहीं हुआ करती थी. सेठ ने नौकर से लालटेन जलाने को कहा. नौकर ने लालटेन जलाने के लिए माचिस की तीली जलाई,. नौकर ने तीन बार तीली जलाई और तीनों बार वह बुझ गयी, सेठ ने तीन तीलियाँ ख़राब करने पर नौकर को बहुत बुरी तरह डांटा मालवीयजी ने सोचा, कि यह सेठ बहुत कंजूस लगता है, शायद ही चंदा दे. सुबह चलने से पहले मालवीयजी ने सोचा, कि चलिए सेठ को एक बार और टटोल लिया जाए. मालवीयजी को सेठ ने 50 हज़ार रूपये की बड़ी रकम भेंट की.मालवीयजी ने मुस्कुराते हुआ कहा, कि रात को तो आपने तीली बर्बाद करने पर नौकर को बहुत डांटा था. मुझे लग रहा था, कि आप बिल्कुल चंदा नहीं देंगे. सेठ ने विनम्रता से कहा, कि मैं व्यर्थ का नुकसान सहन नहीं करता. किसी अच्छे प्रयोजन के लिए मैं पूरी संपदा तक दान कर सकता हूँ.
इस अहसास के लिए थोडा सा विचार और अभ्यास करते रहना चाहिए. मान लीजिये, किसी व्यक्ति ने बहुत आलिशान महल बनाया है , जिसमें वह अपने परिवार के साथ पूरी सुख-सुविधाओं के साथ बहुत आराम से रह रहा है. उसके पास पर्याप्त वाहन, नौकर-चाकर, सेवक सहित सभी सुविधाएं उपलब्ध हैं. इन सभी का पूरा उपयोग करते हुए भी,उसे इस बात पर हमेशा विचार करते रहना चाहिए, कि एक दिन ऐसा अवश्य आना है, जब उसे यह सब यहीं छोड़कर जाना ही होगा. उसके शरीर से चेतन तत्व निकलने के बाद इन सभी चीज़ों का उसके लिए कोई उपयोग नहीं रहा जाने वाला है. उस क्षण की समय-समय पर कल्पना करते रहना चाहिए. ईशावास्योपनिषद् की इस बात का सिर्फ इतना ही अर्थ है, कि सबकुछ भोगते हुए भी किसी चीज़ में आसक्ति नहीं रखी जाए.
श्रीमद्भागवतगीता का तो यह मूल आधार ही है. हमारी सेवा में जो लोग लगे हुए हैं,उन्हें उनका वाजिब हक़ देने में हमारी ओर से कोई कमी नहीं रहे. जिसे भी जो देना है, वह प्रसन्नता के साथ खुलकर दिया जाए. देते समय मन में कोई संशय या अहं का भाव नहीं होना चाहिए. स्वामी विवेकानंद ने कहा है, कि यदि आपके सामने कोई ज़रूरतमंद व्यक्ति मदद माँगने आता है और आप उसकी मदद करने में समर्थ हैं, तो उस व्यक्ति और ईश्वर का आभार मानना चाहिए, कि आपको मदद करने के योग्य बनाया और यह अवसर दिया, कि आप किसीकी मदद कर सकें. अहंकार के बिना ज़रूरतमंद की मदद करके आप उसकी नहीं, बल्कि अपनी ही मदद कर रहे हैं. आपका लोक-परलोक सुधर रहा है. इसलिए इन सभी बातों को ध्यान में रखकर सभीको अथर्ववेद की उपरोक्त सूक्ति के मर्म को जीवन में आत्मसात करके जीवनयापन करना चाहिए. यही हमारे लौकिक और पारलौकिक सुखी जीवन की कुंजी है.
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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