Published By:दिनेश मालवीय

आचरण ही धर्म है, बिना आचरण के सारा ज्ञान व्यर्थ.. दिनेश मालवीय

आचरण ही धर्म है, बिना आचरण के सारा ज्ञान व्यर्थ.. दिनेश मालवीय

भारत में धर्म और ज्ञान के सम्बन्ध में जितनी गहरी खोज हुयी है, उतनी किसी और देश में नहीं हुयी. दुनिया के अनेक देशों में एक से एक बढ़कर दार्शनिक हुए. उनकी सोच और निष्पत्तियों का अपना महत्त्व है, लेकिन उनके दार्शनिक निष्कर्ष बाहरी खोज पर आधारित है. भारत के ऋषियों ने अपने भीतर डुबकी लगाई और ज्ञान के जो रत्न प्राप्त किये हैं, उनका लोहा संसार के सभी ज्ञानवान लोग मानते चले आ रहे हैं. हमारे ऋषियों ने शाब्दिक ज्ञान को वास्तविक ज्ञान नहीं माना. इसे तो पढ़-लिख कर रटंतविद्या जाने वाला कोई भी वैसा का वैसे ही दोहरा सकता है. असली बात है कि, उसने जो पढ़ा है, उस पर वह आचरण करता है या नहीं. कालांतर में भारत में सबसे बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण बात यह हुयी है कि, इसके पास ज्ञान से परिपूर्ण असंख्य ग्रंथ हैं, लकिन उनकी बातों को हम आचरण में नहीं उतार पाये. हालाकि ऐसा सभी जगह होता है, लेकिन ऋषि-मुनियों के देश भारत में ऐसा होना पूरे विश्व के लिए बुरा है. भारत में शुरू से ही आचरण को ही धर्म की कसौटी माना गया है.

वसिष्ठ स्मृति में कहा गया है कि- आचारहीनं न पुनन्ति वेदा. आर्थात आचरण हीं व्यक्ति को वेद भी पवित्र नहीं कर सकते. आजकल व्यक्ति-पूजा का चलन बहुत बढ़ गया है. इस पूजा में व्यक्ति की महानता की जगह उसके शाब्दिक ज्ञान, उसकी हैसियत, पद, जाति, कुल, दूसरों को दण्ड या पुरस्कार देने की क्षमता आदि को अधिक महत्त्व दिया जा रहा है. ऐसा नहीं है कि पहले ऐसा नहीं होता था, यह भृतहरि की इस बात से सिद्ध होता है कि- “यस्यास्ति वित्तं स नर कुलीन:” यानी जिसके पास धन है, वही नर कुलीन है. यह बात उन्होंने अपने समय में आचरण की जगह चरण-पूजा के प्रचलन को देखकर ही व्यंग्य में कही होगी. लेकिन यदि हम और पीछे चलें तो हमारे ऋषियों की वाणी में सिर्फ आचरण को ही महत्त्व दिया गया है. भारत में बहुत प्राचीन काल से ही कहा गया गया है कि –“ आचार: परमो धर्म:” यानी आचार ही परमधर्म है. महाभारत में कहा गया है कि-

 “सर्वोयं ब्राह्मणों लोके वृत्तेन  तु विधीयते

 वृत्ते स्थितस्तु शूद्रोअपि ब्रह्मनत्वं नियच्छति

अर्थ- ब्राह्मण लोग सदाचार के बल पर ही लोक में अपने पद पर प्रतिष्ठित रहते हैं. सदाचार में स्थित रहने वाला शूद्र व्यक्ति भी ब्राह्मणत्व प्राप्त कर सकता है. यह आज भी देखने में आता है कि, कोई धनहीन व्यक्ति भी यदि सदाचारी हो, तो बड़े से बड़ा दुराचारी भी मन ही मन उसके प्रति आदर से भरा होता है. इसके विपरीत यदि कोई बड़े कुल में जन्मा और धनवान व्यक्ति दुराचारी हो, तो ऊपर से लोभ या भय के कारण लोग उसका सम्मान भले ही करते हों, लेकिन भीतर से उसके लिए उनके मन में कोई आदर नहीं होता. आचारहीन व्यक्ति समाज में अच्छी नज़र से देखा ही नहीं जा सकता. ज्योतिषशास्त्र के अनुसार सदाचरण करने से बृहस्पति ग्रह अनुकूल हो जाता है. सारे विपरीत ग्रह अनुकूल हो जाते हैं. सदाचारी व्यक्ति को सम्मान स्वयं उसी प्रकार मिलने लगता है, जैसे सारी नदियाँ स्वयं बहती हुयी सागर से जाकर मिल जाती है. दुराचारी व्यक्ति के साथ इसके बिल्कुल विपरीत होता है.

इसीलिए हर धर्म में व्यक्ति को सदाचारपूर्ण जीवन जीने में मदद के लिए के लिए कुछ नियम और कायदे निर्धारित किये गये हैं. इन्हें जीवन आचार संहिता भी कहा जा सकता है. धर्म ग्रंथों के दो पक्ष भाग होते हैं. एक आध्यात्मिक और दूसरा लौकिक. दूसरे पक्ष में समय-समय पर परिस्थितियों के अनुसार कुछ फेर-बदल कर दिया जाता है, लेकिन इनका मूल भाव नहीं बदलता. अधिकतर लोग दूसरे पक्ष को ही पकड़ कर बैठ जाते हैं, और आध्यात्मिक पक्ष की अवहेलना करते हैं. अधिकतर समस्याओं की जड़ भी यही है. वास्तव में इसका उद्देश्य यही रहता है कि परिस्थतियाँ कैसी भी हों, व्यक्ति अधिक से अधिक सदाचारी बना रहे. कुछ लोगों का जीवन सहज ही इतना निष्कपट और पवित्र होता है, कि उन्हें किसी आचरण संहिता को पढ़ने की ज़रुरत नहीं होती. उनका आचरण न केवल आचरण संहिता के अनुरूप, बल्कि दूसरों के लिए अनुकरणीय होता है. आप कितनी देर पूजा-पाठ करते हैं या जिस धर्म को मानते हैं उसके कर्मकाण्डों और अनुष्ठानों का कितना पालन करते हैं, आपको कितने श्लोक या ग्रंथ मुखाग्र हैं, इन सब बातों का आपके धार्मिक होने का कोई सम्बन्ध नहीं है. महत्त्व इस बात का है कि, आप भीतर से कितने निष्ठावान और आत्मानुशासित हैं.

अनेक लोग ऐसे हैं, जो धर्म के बाहरी स्वरूप में विश्वास नहीं करते. वे कोई दिखावा भी नहीं करते, लेकिन उनका आचरण बहुत पवित्र होता है. वे भीतर से बहुत अच्छे होते हैं. ऐसा नहीं है कि अनुष्ठान और कर्मकाण्ड करने वाले लोग धार्मिक नहीं होते. लेकिन जो लोग सिर्फ इसे ही धर्म समझते हैं, वे बिल्कुल धार्मिक नहीं होते. वे धर्म के किसी भी आचरण से रहित होते हैं. इसीलिए समाज में कभी सच्चा सम्मान और स्नेह नहीं पा सकते. इस विषय से सम्बंधित कथाओं और प्रसंगों से भारत के शास्त्र भरे पड़े हैं. किसी भी ऐसे व्यक्ति को समाज में सम्मान मिलता नहीं दिखाया गया है, जो गिरा हुआ हो. ऐसे अनेक उदाहरण मिल जायेंगे कि, कोई व्यक्ति अपने आचरण के कारण समाज में पूजनीय रहा और आचरण से भ्रष्ट होते ही समाज की नज़र से गिरकर निंदनीय हो गया. ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो ख़राब आचरण के कारण कभी समाज में सम्मान नहीं पाते थे, लेकिन अपने आचरण में सुधार लाने पर उन्हें समाज ने सिर आँखों पर बैठा लिया.

यदि हम अपने ग्रंथों को देखें तो हमें बड़ी संख्या में ऐसे उदाहरण मिलते हैं जिनका जन्म किसी और वर्ण में हुआ, परंतु बाद में वे किसी और वर्ण के हो गए. उदाहरण के लिए ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे. परन्तु वेदाध्यायन के द्वारा वे उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की. ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण बहुत आवश्यक माना जाता है. इसी प्रकार सत्यकाम जाबाल एक गणिका के पुत्र थे. उनके पिता कौन थे, यह उनकी माँ तक नहीं जानती थी. लेकिन वह ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए. विष्णु पुराण में वर्णन आता है कि राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया. राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए. पुन: इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया. धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया. आगे उनके वंश में ही पुन: कुछ ब्राह्मण हुए. क्षत्रियकुल में जन्मे शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया. वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण के अनुसार शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए. आधुनिक समय में भी ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है.

इसीलिए समाज के हर वर्ग को, विशेषकर जनमत निर्माताओं को अपने आचरण पर सबसे अधिक ध्यान देना चाहिए. श्रीमद्भागवतगीता में कहा गया है कि श्रेष्ठ लोग जैसा आचरण करते हैं, जन सामान्य भी उनका अनुकरण करता है. लिहाजा, जो लोग श्रेष्ठ हैं या अपने को श्रेष्ठ मानते हैं या श्रेष्ठ बनना चाहते हैं, उनका सबसे पहला और सर्वोपरि कर्तव्य यह है कि वे अपने आचरण को श्रेष्ठ रखें. वह युग बीत गया जब कोई सिर्फ बड़े कुल में जन्म लेने भर से समाज में सम्मान प्राप्त कर लेता था. आज भी कुछ हद तक ऐसा हो रहा है, लेकिन बहुत निकट भविष्य में ऐसा बिल्कुल नहीं होने वाला. हमारे प्राचीन शास्त्रों के मूल भाव और तत्वार्थों को ठीक से समझ कर उन्हें आचरण में उतारने पर ही सम्मान मिल पायेगा. व्यक्ति के चरण की नहीं, आचरण की पूजा होगी. हमारे अपने ही समाज और देश में यह बात बार-बार प्रमाणित होती रही है. इस बात को जितनी जल्दी समझ लिया जाए उतना ही देश और समाज के व्यापक हित में लाभकारी होगा.

इस विषय पर मैंने ही एक मुक्तक लिखा था-

जनम का अंत तो कुछ भी नहीं   केवल मरण ही है, 

यह तन कुछ भी नहीं बस एक भीना आवरण ही है ,

पढ़ा हो कुछ भी हमने या जुबां से कुछ भी कहते हों ,

मगर  सच  की कसौटी  तो हमारा  आचरण   ही है .

 

धर्म जगत

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