ब्रह्मा जी ने अपने चारों पुत्र सनक, सनन्दन, सनातन एवं सनतकुमार को प्रजा उत्पन्न करने की आज्ञा दी। किन्तु वे चारों निवृत्ति परायण थे और भग्वद भक्ति तथा तपस्या को उत्तम मानते थे, अतः वे ब्रह्मा जी की आज्ञा पालन करने में असमर्थ रहे। अपनी आज्ञा का उल्लंघन होता देख ब्रह्मा जी को अत्यन्त क्रोध उत्पन्न हुआ। यद्यपि उन्होंने अपने क्रोध को शमन करने का प्रयास किया किन्तु वह क्रोध भौहों के मध्य से तत्काल एक नील लोहित शिशु के रूप में उत्पन्न हो गया। वह शिशु रुद्र के नाम से विख्या हुआ और कालान्तर में वे देवाधिदेव महादेव कहलाये।
ब्रह्मा जी ने उस बालक से कहा, "हे रुद्र! तुम हृदय, इन्द्रिय, प्राण, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा तथा तप में वास करोगे। तुम्हारे अनेकों नाम हैं जिनमें मन्यु, मनु, मनिहास, मनान्, शिव, रितध्वज, उत्प्रेता, वामदेव, काल भैरव तथा धृतवृत विख्यात होंगे। धी, वृत्ति, उषना, उमा, नियुत, सर्पि, इला, अम्बिका, इरावती, सुधा एवं दीक्षा - ये एकादश रुद्राणियाँ तुम्हारी पत्नियाँ होंगी। हे शिव, तुम अपनी इन पत्नियों से प्रजा की उत्पत्ति करो। इस काल में तुम प्रजापति हो।"
ब्रह्मा जी की आज्ञा सुनकर भगवान नील लोहित रुद्र ने बल, आकार तथा स्वभाव में अपने ही तुल्य प्रजा की उत्पत्ति की। रुद्रदेव के द्वारा उत्पन्न हुई प्रजा समस्त जगत को खाने लगी। यह देखकर ब्रह्मा जी को अत्यन्त खेद हुआ और वे शिव से बोले, "हे महादेव! तुम्हारे द्वारा उत्पन्न की हुई प्रजा तो मेरे द्वारा उत्पन्न प्रजा को खाये जा रही है। मुझे ऐसी सृष्टि की आवश्यकता नहीं है, तुम तप के द्वारा सौम्य एवं उत्तम प्रजा उत्पन्न करो।"
ब्रह्मा जी की आज्ञा सुनकर रुद्रदेव अति प्रसन्न होकर तपस्या के लिए वन को चले गये।
इसके पश्चात् ब्रह्मा जी ने अपने संकल्प से दस पुत्रों की उत्पत्ति की जिनके नाम मरीच, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, कृतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष और नारद थे। ये दसों ब्रह्मा जी के अंगों से उत्पन्न हुए। दक्ष की अंगूठे से, वसिष्ठ की प्राण से, भृगु की त्वचा से, कृतु की हाथ से, पुलह की नाभि से, पुलस्त्य की कान से, अंगिरा की मुख से अत्रि की नेत्रों से और मरीच की मन से उत्पत्ति हुई।
ब्रह्मा जी के दाहिने स्तन से धर्म की उत्पत्ति हुई जिससे नर-नारायण के रूप में स्वयं भगवान प्रकट हुए। ब्रह्मा जी के पीठ से अधर्म उत्पन्न हुआ। हृदय से काम, दोनों भौहों से क्रोध, मुख से सरस्वती, नीचे के ओठ से लोभ, लिंग से समुद्र, गुदा से विऋति और छाया से कर्दम ऋषि प्रकट हुए।
बह्मा जी की कन्या सरस्वती इतनी सुन्दर और सुकुमार थी की एक बार स्वयं ब्रह्मा जी उस कन्या को देखकर अति कामित हो उठे। उनका ऐसा अधर्मपूर्ण संकल्प उनके पुत्रों ने उन्हें समझाया। तब ब्रह्मा जी ने अति लज्जित होकर अपना वह शरीर त्याग दिया। उसी त्यागे गये शरीर को कुहरा तथा अन्धकार के रूप में दिशाओं ने ग्रहण कर लिया।
इसके बाद ब्रह्मा जी ने अपने पूर्व वाले मुख से ऋग्वेद की, दक्षिण वाले मुख से यजुर्वेद की, पश्चिम वाले मुख से सामवेद की और उत्तर वाले मुख से अथर्ववेद की रचना की। फिर शास्त्र, इज्या, स्तुति, स्तोम्ब, प्रायश्चित आदि कर्मों की उत्पत्ति हुई। इसी प्रकार से क्रमशः आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्ववेद तथा स्थापत्यवेद उपवेदों की रचना हुई। इसके बाद ब्रह्मा जी ने अपने मुख से इतिहास-पुराण पाँचवा वेद उत्पन्न किया तथा योग, विद्या, दान, तप, सत्य, धर्म के चार चरण तथा चारों आश्रम उत्पन्न किये।
आश्रमों की वृत्तियाँ इस प्रकार हैं - सावित्र वृत्ति, प्रजापत्य वृत्ति, ब्रह्मवृत्ति तथा वृहत् वृत्ति ब्रह्मचारी के लिए बनाई गई हैं। वार्त वृत्ति, संचय वृत्ति, शालीन वृत्ति तथा शिलोच्छ वृत्ति गृहस्थ के लिए हैं। वैखानस, बालखिल्य, औदुम्बर तथा फैनप वृत्तियाँ वानप्रस्थों के लिए हैं। कुटीचक्र, बहूदक, हंस तथा परमहंस वृत्तियाँ सन्यासियों के लिए हैं।
आन्वीक्षिकी, त्रया, वार्ता तथा दण्डनीति ब्रह्मा जी के चारों मुखों से उत्पन्न हुईं। उनके हृदय से ओंका प्रकट हुआ। वर्ण, स्वर, छन्द आदि भी उनके अंगों से प्रकट हुए। रोम से आष्णिक छन्द, त्वचा से गायत्री छन्द, मांस से त्रिष्टुप छन्द, स्नायु से अनुष्टुप छन्द, हड्डियों से जगती छन्द, मज्जा से पंक्ति छन्द तथा प्राणों से वृहती छन्द उत्पन्न हुए। ब्रह्मा जी के जीव से 'क' से लेकर 'प' वर्ण, शरीर से स्वर, इन्द्रियों से ऊष्म वर्ण तथा अन्तःस्थल से य, र, ल, व उत्पन्न हुए। ब्रह्मा जी की क्रीड़ा से षड़ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद संगीत स्वरों की उत्पत्ति हुई।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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