Published By:धर्म पुराण डेस्क

जय और विजय को शाप (Curse on Jay and Vijay - Stories from Bhagwat Puran)

जब वे भगवान विष्णु के ड्यौढ़ी पर पहुँचे तो जय और विजय नामक दो द्वारपालों ने उन्हें रोककर कहा कि इस समय भगवान विष्णु विश्राम कर रहे हैं, अतः आप लोग भीतर नहीं जा सकते।

यद्यपि वे चारों ऋषिगण अत्यधिक आयु के थे, किन्तु उनके तप के प्रभाव से वे बालक नजर आते थे, इसी कारण से जय और विजय उन्हें पहचान नहीं पाये थे और उन्हें साधारण बालक ही समझा था।

जय और विजय के द्वारा इस प्रकार से रोके जाने पर ऋषि गणों ने क्रोधित होकर कहा, "अरे मूर्खों! हम भगवान विष्णु के भक्त हैं और भगवान विष्णु तो अपने भक्तों के लिए सदैव उपलब्ध रहते हैं। तुम दोनों अपनी कुबुद्धि के कारण हम लोगो को भगवान विष्णु के दर्शन से विमुख रखना चाहते हो। ऐसे कुबुद्धि वाले विष्णु लोक में रहने के योग्य नहीं है। अतः हम तुम्हें शाप देते हैं कि तुम दोनों का देवत्व समाप्त हो जाये और तुम दोनों भूलोक में जाकर पापमय योनियों में जन्म लेकर अपने पाप का फल भोगो।"

सनकादिक ऋषियों के इस घोर शाप को सुनकर जय और विजय भयभीत होकर उनसे क्षमा याचना करने लगे। इसी समय भगवान विष्णु भी वहाँ पर आ गये। जय और विजय भगवान विष्णु से प्रार्थना करने लगे कि वे ऋषियों से अपना शाप वापस ले लेने का अनुरोध करें।

भगवान विष्णु ने उन दोनों से कहा, "ऋषियों का शाप कदापि व्यर्थ नहीं जा सकता। तुम दोनों को भूलोक में जाकर जन्म अवश्य लेना पड़ेगा। अपने अहंकार का फल भोग लेने के बाद तुम दोनों पुनः मेरे पास वापस आवोगे। तुम दोनों के पास यहाँ वापस आने के लिए दो विकल्प है, पहला यह कि यदि तुम दोनों भूलोक में मेरे भक्त बन कर रहोगे तो सात जन्मों के बाद यहाँ वापस आवोगे और दूसरा यह कि यदि भूलोक में जाकर मुझसे शत्रुता रखोगे तो तीन जन्मों के बाद तुम दोनों यहाँ वापस आवोगे क्योंकि उन तीनों जन्मों में मैं ही तुम्हारा संहार करूँगा।"

जय और विजय सात जन्मों तक पृथ्वीलोक में नहीं रहना चाहते थे इसलिए उन्होंने दूसरे विकल्प को मान लिया।

उन्हीं जय और विजय भूलोक में सत् युग में अपने पहले जन्म में हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यपु, त्रेता युग में अपने दूसरे जन्म में रावण और कुम्भकर्ण तथा द्वापर में अपने तीसरे जन्म में शिशुपाल और दन्तवक्र बने।

 

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