पाश्चात्य चिंतन में धर्म के स्थान पर ‘रिलिजन’ शब्द का प्रयोग मिलता है अतः 'रिलिजन' शब्द के अर्थ को समझना आवश्यक है। कई विद्वान 'रिलिजन' शब्द का प्रयोग एवं 'धर्म' शब्द का प्रयोग एक ही अर्थ में करते हैं। वे इन्हें पूर्णतः एक ही मान लेते हैं और 'रिलिजन' की ही भाँति 'धर्म' को व्याख्यायित करने का प्रयत्न करते हैं।
इसका प्रमुख कारण दोनों में कुछ समरूपताओं का पाया जाना है, जैसे- पवित्रता, संयमपूर्ण जीवन, नैतिकता, विश्वास, ईश्वर की या परमसत्ता की मान्यता, प्रार्थना, उपासना, स्वर्ग-नरक आदि। किंतु इससे यह नहीं माना जा सकता कि 'धर्म' व 'रिलिजन' एक ही है या दोनों का प्रयोग अपने समग्र अर्थ में एक दूसरे के स्थान पर किया जा सकता है।
धर्म के लौकिक प्रयोग को वर्णित करते हुए 'धर्म' व 'रिलिजन' के अर्थभेद को स्पष्ट किया गया है। इसमें ऋग्वेद के अनुसार धर्म को जगत के निर्वाहक नियमों के समूह के रूप में स्वीकार किया गया है। 'धर्म' शब्द संस्कृत भाषा का शब्द है जबकि लैटिन-अंग्रेजी भाषा के 'रिलिजन' शब्द से विभिन्न जातियों की विभिन्न ईश्वरोपासना प्रणाली का बोध होता है।
संस्कृत में ईश्वरोपासना प्रणाली को महत्ता दी गयी है किंतु वह 'आचार' शब्द के अंतर्गत है। धर्म शब्द से आचार का बोध कराते हुए क्रमशः उसका अर्थ संकुचित कर आचार के विभिन्नांशों के लिये उसका प्रयोग किया जाने लगा और ऐसी स्थिति में 'रिलिजन' शब्द का अर्थ 'धर्म' में प्रविष्ट हो गया तथा धर्म को 'रिलिजन' शब्द के स्थान पर 'रिलिजन' को 'धर्म' शब्द के स्थान पर प्रयुक्त किया जाने लगा।
18 मैक्समूलर के अनुसार 'धर्म' और 'रिलिजन दो पृथक भाषाओं के शब्द हैं अतः धर्म को ग्रीक या लैटिन में अनुवादित नहीं किया जा सकता है और न ही लैटिन के 'रिलिजन' में ही धर्म का संपूर्ण अर्थ सन्निहित है।
'धर्म' एवं 'रिलिजन' में एक अन्य प्रमुख भेद व्यापकता का भी पाया जाता है। 'धर्म' में ईश्वर को मानने वाले और ईश्वर को न मानने वाले दोनों को धर्म में समावेशित किया गया है।
वैदिक धर्म (हिन्दू धर्म) में ईश्वर की सत्ता में विश्वास प्रकट किया गया किंतु जैन धर्म" एवं बौद्ध धर्म में ईश्वर (सृष्टा) के अस्तित्व में विश्वास प्रकट नहीं किया गया है जबकि 'रिलिजन' के अर्थ के अंतर्गत दिव्य सत्ता (ईश्वर) अलौकिक विश्वास ईश्वर की अधीनता का आदर्श ईश्वर का सृष्टित्व उपवास, प्रायश्चित, विभिन्न उपासना पद्धतियाँ आदि को विशेष रूप से स्वीकार किया गया है।
डॉ निर्मल गर्ग के अनुसार अनीश्वरवादी (ईश्वर को नहीं मानने वाला) धर्म हो सकता है- इसे प्रायः पाश्चात्य चिंतन परंपरा में स्थान दिये जाने का उल्लेख नहीं मिलता है। दैवीय सत्ता की प्रकाशना (जिसके द्वारा ईश्वर स्वयं मनुष्यों को अपने विषय में जानकारी देता है), चमत्कार आदि का बोध रिलिजन माना गया है।
धर्म में भी आचार-विचार के दृष्टिकोण से इन समस्त भावों का आभास पाया जाता है किंतु विभिन्न ग्रंथों में धर्म के उल्लेखों से यह स्पष्ट होता है कि 'धर्म' का अर्थ व स्वरूप 'रिलिजन' के अर्थ एवं स्वरूप की अपेक्षा अधिक व्यापक है|
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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