इन सब सवालों का जवाब..
अर्जुन ने अपने को धर्मात्मा मानकर युद्ध से निवृत्त होने में जितनी दलीलें, युक्तियाँ दी हैं, संसार में रचे पचे लोग अर्जुन की उन दलीलों को ही ठीक समझेंगे और आगे भगवान अर्जुन को जो बातें समझायेंगे, उनको ठीक नहीं समझेंगे! इसका कारण यह है कि जो मनुष्य जिस स्थिति में हैं, उस स्थिति की, उस श्रेणी की बात को ही वे ठीक समझते हैं; उससे ऊँची श्रेणी की बात वे समझ ही नहीं सकते।
अर्जुन के भीतर कौटुम्बिक मोह है और उस मोह से आविष्ट होकर ही वे धर्म की, साधुता की बड़ी अच्छी-अच्छी बातें कह रहे हैं।
अतः जिन लोगों के भीतर कौटुम्बिक मोह है, उन लोगों को ही अर्जुन की बातें ठीक लगेगी। परन्तु भगवान की दृष्टि जीव के कल्याण की तरफ है कि उसका कल्याण कैसे हो? भगवान की इस ऊँची श्रेणी की दृष्टि को वे (लौकिक दृष्टि वाले) लोग समझ ही नहीं सकते।
अतः वे भगवान की बातों को ठीक नहीं मानेंगे, | प्रत्युत ऐसा मानेंगे कि अर्जुन के लिये युद्ध रूपी पाप से बचना बहुत ठीक था, पर भगवान ने उनको युद्ध में लगाकर ठीक नहीं किया !
वास्तव में भगवान ने अर्जुन से युद्ध नहीं कराया है, प्रत्युत उनको अपने कर्तव्य का ज्ञान कराया है। युद्ध तो अर्जुन को कर्तव्य रूप से स्वतः प्राप्त हुआ था। अतः युद्ध का विचार तो अर्जुन का खुद का ही था; वे स्वयं ही युद्ध में प्रवृत्त हुए थे, तभी वे भगवान को निमंत्रण देकर लाए थे।
परन्तु उस विचार को अपनी बुद्धि से अनिष्टकारक समझ कर वे युद्ध से विमुख हो रहे थे अर्थात अपने कर्तव्य के पालन से हट रहे थे। इस पर भगवान ने कहा कि यह जो तू युद्ध नहीं करना चाहता, यह तेरा मोह है। अतः समय पर जो कर्तव्य स्वतः प्राप्त हुआ है, उसका त्याग करना उचित नहीं है।
कोई बद्रीनारायण जा रहा था; परन्तु रास्ते में उसे दिशा भ्रम हो गया अर्थात उसने दक्षिण को उत्तर और उत्तर को दक्षिण समझ लिया। अतः वह बद्रीनारायण की तरफ न चलकर उल्टा चलने लग गया।
सामने से उसको एक आदमी मिल गया। उस आदमी ने पूछा कि 'भाई! कहाँ जा रहे हो ?' वह बोला- 'बद्रीनारायण'। वह आदमी बोला कि भाई! बद्रीनारायण इधर नहीं है, उधर है। आप तो उलटे जा रहे हैं!' अतः वह आदमी उसको बद्रीनारायण भेजने वाला नहीं है, किन्तु उसको दिशा का ज्ञान कराकर ठीक रास्ता बताने वाला है। ऐसे ही भगवान ने अर्जुन को अपने कर्तव्य का ज्ञान कराया है, युद्ध नहीं कराया है।
स्वजनों को देखने से अर्जुन के मन में यह बात आयी थी कि मैं युद्ध नहीं करूँगा– 'न योत्स्ये', पर भगवान का उपदेश सुनने पर अर्जुन ने ऐसा नहीं कहा कि मैं युद्ध नहीं करूँगा; किन्तु ऐसा कहा कि मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा;- 'करिष्ये वचनं तव' अर्थात् अपने कर्तव्य का पालन करूँगा। अर्जुन के इन वचनों से यही सिद्ध होता है कि भगवान ने अर्जुन को अपने कर्तव्य का ज्ञान कराया है।
वास्तव में युद्ध होना अवश्यम्भावी था, क्योंकि सब की आयु समाप्त हो चुकी थी। इसको कोई भी टाल नहीं सकता था। स्वयं भगवान ने विश्वरूप दर्शन के समय अर्जुन से कहा है कि 'मैं बढ़ा हुआ काल हूँ और सब का संहार करने के लिये यहाँ आया हूँ।
अतः तेरे युद्ध किये बिना भी ये विपक्ष में खड़े योद्धा लोग बचेंगे नहीं'। इसलिये यह नरसंहार अवश्यम्भावी होनहार ही था। यह नरसंहार अर्जुन युद्ध न करते, तो भी होता। अगर अर्जुन युद्ध नहीं करते, तो जिन्होंने माँ की आज्ञा से द्रौपदी के साथ अपने सहित पांचों भाइयों का विवाह करना स्वीकार कर लिया था, वे युधिष्ठिर तो माँ की युद्ध करने की आज्ञा से युद्ध अवश्य करते ही।
भीमसेन भी युद्ध से कभी पीछे नहीं हटते; क्योंकि उन्होंने कौरवों को मारने की प्रतिज्ञा कर रखी थी। द्रौपदी ने तो यहाँ तक कह दिया था कि अगर मेरे पति (पांडव) कौरवों से युद्ध नहीं करेंगे तो, मेरे पिता (द्रुपद), भाई (धृष्टद्युम्न) और मेरे पाँचों पुत्र तथा अभिमन्यु कौरवों से युद्ध करेंगे। इस तरह ऐसे कई कारण थे, जिससे युद्ध को टालना संभव नहीं था।
होनहार को रोकना मनुष्य के हाथ की बात नहीं है; परन्तु अपने कर्तव्य का पालन करके मनुष्य अपना उद्धार कर सकता है और कर्तव्यच्युत होकर अपना पतन कर सकता है। तात्पर्य है कि मनुष्य अपना इष्ट-अनिष्ट करने में स्वतंत्र है। इसलिए भगवान ने अर्जुन को कर्तव्य का ज्ञान कराकर मनुष्य मात्र को उपदेश दिया है कि उसे शास्त्र की आज्ञा के अनुसार अपने कर्तव्य के पालन में तत्पर रहना चाहिए, उससे कभी च्युत नहीं होना चाहिये ।
स्वामी रामसुखदास
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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