 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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शरीर में कोई भी रोग होना प्रकृति द्वारा हमें दिया गया दण्ड ही होता है जो हमें हमारे ग़लत आहार-विहार और अनुचित आचार-विचार के कारण दिया जाता है।
यूँ प्रकृति बहुत उदार है, सहनशील है और हमें भरपूर सहयोग देने वाली है तभी हमारी छोटी-मोटी गलतियों को नज़र अन्दाज़ करती रहती है जैसे ममतामयी मां बच्चे की नटखट हरकतों और शैतानियों को लाड़ दुलार के कारण सहन करती रहती है पर जब मां यह देखती है कि बच्चे की आदतें बिगड़ने लगी है तब वह बच्चे को डपटती है, कान मरोड़ती है और ज़रूरत पड़ने पर चपत भी लगाती है.
बस यही हाल प्रकृति का है जब प्रकृति देखती है कि हम अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहे हैं तो पहले वह कुछ लक्षण प्रकट करके इशारा करती है कि खबरदार! फिर भी जब हम परवाह नहीं करते तो वह हलकी सी व्याधि देकर हमें होशियार करती है, इतने पर भी जब हम ध्यान नहीं देते तब प्रकृति के खिलाफ गैर-कानूनी हरकत करने के लिए प्रकृति अपने दण्ड विधान के अनुसार जाने की कार्रवाई करते हुए जो सजा हमें देती है उसे हम रोग कहते हैं। गोया रोग हमारी ही गुस्ताखियों के लिए दिया गया दंड होता है।
पवित्र उसे कहते हैं जिसमें कोई दोष न हो और जिससे दोष पैदा भी न होता हो। जिस वस्तु में दोष हो या उससे पैदा हो सकता हो वह अपवित्र होती है इसलिए जो वस्तु आज पवित्र हो वह कल अपवित्र भी हो सकती है।
जो किसी भी सूरत में अपवित्र हो ही नहीं सके उसे पवित्र नहीं, पावन कहते हैं जैसे गंगा का जल। गंगा का जल पवित्र नहीं पावन है क्योंकि दोष भी उसे दूषित पानी अपवित्र नहीं कर पाते तभी तो गंगा जल बरसों तक रखा रहने पर भी सड़ता नहीं।
 
 
                                मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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