 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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आजकल भगवान श्री कृष्ण के नाम पर एक पुरुष अनेक स्त्रियों से प्रेम प्रसंग करता है इसी तरह स्त्री भी किसी भी पुरुष को श्रीकृष्ण मानकर उनके नाम पर व्यभिचार करती है। लेकिन यह सब भारी पड़ सकता है यदि श्री कृष्ण के गोपियों वाले स्वरूप का सही वर्णन और चिंतन नहीं किया गया।
शास्त्र कहते हैं-
यस्त्विह वा अगम्यां स्त्रियं पुरुषः अगम्यं वा पुरुषं,
योषिदभिगच्छति तावमुत्र कशया ताडयन्तस्तिग्मया सूर्म्या,
लोहमय्या पुरुषमालिंगयन्ति स्त्रियं च पुरुषरूपया सूर्म्या।
अर्थात् 'कोई पुरुष यदि अगम्या स्त्री में गमन करता है अथवा कोई स्त्री अगम्य पुरुष से गमन करती है (अगम्य वही है, जिससे विवाह न हुआ हो) तो उनके मरने पर यमदूत उनको मारते हुए ले जाते हैं और वहाँ जलती हुई लोहे की स्त्री मूर्ति से पुरुष का और पुरुष मूर्ति से स्त्री का आलिंगन कराते हैं। इस नरक का नाम 'तप्तसूर्मि' है। '
इसके बाद जब स्थूलदेह में जन्म होता है, तब उन्हें कई जन्मों तक नाना प्रकार के भयानक रोगों से पीड़ित रहना पड़ता है।अतएव इस मायिक जगत् में श्रीकृष्ण की और गोपियों की दिव्य लीला का अनुकरण कदापि नहीं हो सकता, न ऐसा दुस्साहस किसी को कभी करना ही चाहिये।
हाँ, जिनके अन्तःकरण परम विशुद्ध हो गये हैं, इस लोक और परलोक के भोगों की सारी वासना जिनके मन से मिट चुकी है, जो मुक्ति का भी तिरस्कार कर सकते हैं, ऐसे पुरुषों में यदि किन्हीं महापुरुष की कृपा से श्रीकृष्ण सेवा की लालसा जाग उठे और भुक्ति-मुक्ति की सूक्ष्म वासना तक का सर्वथा अभाव होकर उन्हें शुद्ध प्रेमा-भक्ति प्राप्त हो|
तब संभव है गोपियों की भाँति श्रीकृष्ण उन्हें उपपति के रूप में प्राप्त हो सके। अतएव यदि गोपियों को आदर्श मानकर उनका अनुकरण करना हो तो वह परम पुरुष श्री कृष्ण के लिये करना चाहिये, न कि हाड़-मांस के घृणित पुतले पर-पुरुष या पर स्त्री के लिये।
शरीर से तो अनुकरण कोई भी नहीं कर सकते। परंतु भाव से भी, जिनमें तनिक भी निजेन्द्रिय-तृप्ति की वासना है, जो पवित्र और परम वैराग्य का स्वच्छ भूमिका पर नहीं पहुंच गये हैं, वे पुरुष या स्त्री यदि श्री गोपी-गोपीनाथ की लीलाओं का अनुकरण करना चाहेंगे तो उनकी वही दशा होगी, जो सुन्दर फूलों के हार के भरोसे अत्यन्त विषधर नाग को गले में पहनने वालों की होती है। पांच भौतिक देहधारी स्त्री-पुरुष को तो श्रीकृष्ण की लीला की तुलना अपने कार्यों से करनी ही नहीं चाहिये।
श्रद्धेय भाईजी श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार के अनुसार
 
 
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