Published By:धर्म पुराण डेस्क

ज्योति और प्रकाश का पर्व दीपावली 

भारत की राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक एकता का प्रतीक 'दीपावली का त्योहार आल्हाद, उत्साह एवं भव्यता का अभूतपूर्व सामंजस्य है। दीपावली का इतिहास मानव इतिहास जितना ही प्राचीन है। दीपावली पर्व के संबंध में अनेक पौराणिक गाथाएं जुड़ी हुई हैं जिनका सम्मिलित रूप है दीपावली ।

कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी (धनतेरस) से लेकर कार्तिक शुद्ध द्वितीया (भाई दूज) तक सारे देश में हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाने वाला यह त्योहार प्रमुख रूप से “ज्योति और प्रकाश" का पर्व है। धनतेरस की शाम को "यम" के नाम से पहला दीप जलाकर दीपदान की मालिका तथा दीपावली पर्व की शुरुआत होती है। नरक चतुर्दशी के दिन दुष्ट, अत्याचारी, कुमार्गी, क्रूर नरकासुर का वध भगवान श्रीकृष्ण ने किया इस खुशी में दीपक जलाए जाते हैं। 

कार्तिक कृष्ण श्रमावस्या को दिवाली का प्रमुख त्योहार मनाया जाता है। समुद्र मंथन से लक्ष्मीजी की उत्पत्ति इस कार्तिकी अमावस्या को हुई ऐसी पुराण कथा प्रचलित है। दूसरी कथा के अनुसार प्रतापी दैत्यराज बलि के कारागृह में बन्दी अनेक देवताओं के साथ भगवान विष्णु ने बटुक रूप में बलि राजा को पाताल में ढकेलकर लक्ष्मीजी को छुड़वाया इस खुशी में तथा बलि राजा की उदारता, त्याग और दान-प्रियता की स्मृति में दीपदान करने की प्रथा शुरू हुई। 

इस रात लक्ष्मी देवी मृत्युलोक में प्राती है तथा साफ, सुन्दर और प्रकाशयुक्त घर में वास करती है ऐसी धारणा प्रचलित है। इसी धारणा के अनुसार लक्ष्मी पूजन करके घर-घर में दीपक प्रज्वलित किए जाते हैं। श्री सौन्दर्य, सम्पत्ति एवं वैभव की देवी समस्त जनमानस में लोकप्रिय हों।

उसकी प्राप्ति के लिए उसकी उपासना करने वाला मनुष्य कर्मठ, मितव्ययी, कर्तव्यपरायण और कार्यतत्पर होना आवश्यक है। कठोर परिश्रम से प्राप्त लक्ष्मी स्वयं हो प्रकाशमान रहती है। दीपज्योति तो अंधकार को नष्ट करके प्रकाश देने वाली एक प्रतीक है। दीपावली का उद्देश्य है अज्ञान और अन्धकार के दानवों पर ज्ञान के प्रकाश की विजय " तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतम गमय।" यह वेदों को क्या कहता है, मुझे अंधकार से प्रकाश, मृत्यु से अनश्वरता की ओर ले चलो," यही है मानव के विजय का इतिहास जो दीपोत्सव के रूप में हम हर वर्ष मनाते हैं।

ज्योति पूजा-

प्राचीनकाल से भारत में भगवान का एक रूप समझकर "ज्योति पूजा" होती आ रही है। प्रकाश कहां से आता है, कैसे आता है ? यह शंका राजा जनक ने मुनि याज्ञवल्क्य के सामने प्रकट की तब उन्होंने जवाब दिया, "प्रकाश मनुष्य के अंतर्मन ही से प्राप्त होता है। इसे प्राथमिक ज्ञान कहते हैं। यह प्रकाश न हो तो सूर्य, चन्द्र, अग्नि या वाक्य से प्राप्त प्रकाश निरर्थक है।" ब्रह्म को उपनिषद में "ज्ञान स्वरूप" कहा गया है वह इसी स्वरूप में। मन में ज्योति प्रकाश प्रज्वलित होता है तब मनुष्य मनुष्य का भेद नष्ट होकर समस्त प्राणी मात्र से हम एक-सा उदारता का व्यवहार करने लगते हैं।

ज्योति पूजन का उद्देश्य पापों से मुक्ति पाना, भगवान चरणों में लीन होकर निर्भयता से रहना है। "पापः प्रजनन नाशयति क्रिया मानस पुनः पुनः" यानी पाप के कारण ज्ञान पर पर्दा पड़ा रहता है, ऐसा व्यास जी ने लिखा है। पुराणों में ज्योति को आदि शक्ति का रूप माना गया है जो मनुष्य के भौतिक एवं आत्मिक विकास का मार्ग प्रशस्त करती है।

इस ज्योति स्वरूप भगवान की पूजा पाठ भी राजस्थान एवं मालवा में लक्ष्मी पूजन के साथ करने की प्रथा है जिसे "होड़" पूजन कहते हैं। "होड़" शब्द का अयं है ज्योति, प्रकाश या उल्का दीपावली के अवसर पर मिट्टी के सकोरे (कटोरी के आकार का बड़ा दीपक) में तिल्ली के तेल एवं कपास्ये रखकर ज्योति प्रज्वलित की जाती है। लक्ष्मी पूजन के साथ इस "होड़" को भी पूजा की जाती है। पूजन के पश्चात् बांस या चपटी लकड़ी के डंडे पर हीड़ को रखकर लड़के घर-घर जाते हैं और कहते हैं-

हीड़ सींचो तेल घालो।

तेल नी घालो तो रावले चालो।।

"हीड़” में तेल डालकर स्नेह की ज्योत प्रज्वलित करते हुए ये दूसरे घर जाते हैं। प्रत्येक द्वार पर उन्हें मेवा मिठाई मिलती है।

"हीड़" की प्रथा अपने आप में एक अनोखी प्रथा है। मित्रता, स्नेह एवं सौहार्द का परिचय देने वाली राजस्थानी जनमानस के निश्छल हृदय को प्रकट करने वाली एक मौलिक और सामाजिक प्रथा है। विश्व बन्धुत्व की परिचारिका अपने आप में सत्यं शिवं सुन्दरम् है। हमारा दुर्भाग्य कि एकता और घनिष्ठता बढ़ाने वाली "हीड़" जैसी सुरुचिपूर्ण सांस्कृतिक प्रथा आज नगरों से दूर-दूर जाकर ग्रामीणों में जाकर बस रही हैं।

राजस्थानी लड़के, होड़ संजोते हैं तो लड़कियां सिर पर "घुडल्या" लिए घर-घर घूमती हैं। वैसे तो दशहरे से ही रात को छोटी-छोटी बालिकाएं "घुडल्या" निकालने लगती हैं। जालीदार छोटे-छोटे घड़ों में दीपक जलाकर कुमारी कन्याएं घर-घर घूमती हैं। गीतों की मधुर लहरियों के साथ नूपुरों की रुनझुन में ये बालिकाए “घुड़स्या” सर पर रखकर घर-घर जाकर नृत्य करती है तो संपूर्ण दृश्य प्रत्यन्त मनोहर लगता है-

घुड़ल्यो म्हारो लाड़लो। संर में भाग्यो जाय रे भाई। सैर में भाग्यो कांटुलयो। नाई रे घरे जाय रे भाई॥ छोरा मांगे भंवरा। छोरयां मांगे डल्यां (गुड़या) हीरान॥

घुड़ल्या के पीछे एक ऐतिहासिक कथा प्रचलित है-

राजस्थान में मुसलमानों के प्राक्रमणों को सबसे अधिक जवाब दिया तो शूर वीर राजपूतों ने संवत 1548 की बात है। अजमेर के सूबेदार मल्लूखां ऊर्फ मलिक यूसुफ ने मारवाड़ के पीपाड़ गांव पर हमला किया। अनेक कन्याओं का अपहरण करके वह लौट रहा था तभी वीरवर राव सतलजी ने अपने वीर सैनिकों के साथ उसका पीछा किया। कौसाना गांव के पास उनकी मुठभेड़ हुई। 

मल्लूखां के साथी सिन्ध के मीर घुड़ेलखां के कब्जे में सब कन्याएँ थीं। यह खबर मिलते ही राव सातलजी ने उसके डेरे को तीरों और तलवारों से घेर लिया और उसे काटकर कन्याओं को छुड़वाकर अपने साथ ले आए। इस विजय गाथा के स्मरणार्थं मारवाड़ की कन्याएं अपहरण करने वाले घुड़ेलखां के सिर के समान छेद वाला घड़ा सर पर रख कर गाती हैं-

घुड़लयां ए सोपारयां छायो तारां छाई रात जो धारणा राज मोत्यां छायो राजा जी रा राज में म्हें घुड़ल्या रीतीजण्यां प्रो वीरा ये छो मोटा राज॥ म्हारो घुड़ल्यो राज बखाण्यो राठोडी राजपूत बखाण्यो पाली रा परधान बखाण्यो जैतारण ना नाट बखाण्यो कुडकी रा कुम्हार बखायो।

मारवाड़ के नरेश। हमारे घुड़ल्ये की प्रशंसा मारवाड़ के राणा ने की, राठौड़ी राजपूतों ने की सोजत के सरदार पाली के प्रथम जैतारण के जाट और कुडकी के कुम्हारों ने की। इस ऐतिहासिक प्रसंग को लेकर राजस्थान भर में

दिवाली के उपलक्ष्य में "घुड़ल्या" संजोकर बालिकाए दीप की राजस्थानी शूरवीरता की गाथा गाती हैं। अंधकार में प्रकाश फैलाने वाले, दुष्ट का संहार करने वाले, घुड़ेलखां को सबक सिखाने वाले वीर राव सातलजी और उनके सैनिकों की यह गौरव गाथा दीप गाथा है।

पराक्रम ही ज्योति का स्वरूप है। जिसे राजस्थान वीरों ने ग्रहण किया और लक्ष्मी पूजन याने के साथ सम्पन्नता, वैभव एवं विनय प्राप्त करने की सामाजिक कामना को मूर्त स्वरूप दिया। "दीप" मात्र एक मृत्तिका पात्र नहीं है, अपितु जीवन को सतत जलते रहने की प्रेरणा देने वाला प्रतीक है सोई बसुधा का रक्षण करता हुआ यह दीपक अंधकार से संघर्ष करता अकेला जलता रहता है।

जीवन भी दैन्य दारिद्रय, अज्ञान में लिप्त है। उससे मुकाबला करने की चुनौती देना है। दुर्घर्ष पौरुष का सूचक है। इस सूचक को ग्रहण करके यदि हम आज के विकट समय में, संघर्ष के सोपान पर आगे बढ़े तो गरीबी दारिद्रय अज्ञान, बाढ़, अकाल, अनाज समस्या, बेरोजगारी प्रादि अनेक समस्याओं को हल कर सकते हैं तथा भारतीय समाज को प्रगति के पथ पर अग्रसर कर सकते हैं।

धर्म जगत

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