प्रेगनेंसी के दौरान आहार-विहार का बहुत महत्व है।
वैध डॉक्टर सूरज खोदरे के अनुसार गर्भावस्था में निषेध आहार-विहार करने से यह विकार पैदा हो सकते हैं-
1. गर्भ की मृत्यु हो सकती है।
2. गर्भस्राव या गर्भपात हो सकता है।
3. उत्तान होकर सोने से गर्भ के कण्ठ को नाभि नाड़ी बांध देती है। जिससे गर्भ को श्वास-प्रश्वास में कठिनाई होती है।
4. विकृत स्थान में सोने एवं रात्रि में घूमने वाली गर्भवती स्त्री को उन्मत्त संतान उत्पन्न होती है।
5. कलह करने वाली स्त्री को अपस्मार रोग से पीड़ित संतान होती है।
6. गर्भावस्था में शोकाकुल रहने वाली स्त्री को डरपोक, कृश एवं अल्प आयु संतान को जन्म देती है।
7. गर्भावस्था में हर समय सोते रहने वाली स्त्री, तन्द्रालु, मूर्ख, मंदाग्नि रोग से पीड़ित सन्तान को जन्म देती है।
8. मधुर रस का प्रतिदिन सेवन- प्रमेह रोग, स्थूल संतान उत्पन्न।
- अम्ल रस का प्रतिदिन सेवन- रक्तपित्त एवं त्वचा रोग।
- लवण रस का प्रतिदिन सेवन - खालित्य एवं पालित्य रोग।
- कटु रस का प्रतिदिन सेवन - दुर्बल, अल्प शुक्र वाली संतान।
- तिक्त रस का प्रतिदिन सेवन शोष रोग से युक्त कमजोर संतान।
- कषाय रस का प्रतिदिन सेवन - श्याम वर्ण वाली, आनाह से युक्त।
9. उत्कटासन पर बैठने से उदर प्राचीर पर दबाव पड़ता है जिससे गर्भ पर दबाव पड़ने के कारण गर्भपात होने की संभावना होती है।
उपरोक्त विवेचन से यह विदित होता है कि आयुर्वेद शास्त्रों में गर्भिणी के प्राथमिक स्वास्थ्य के संरक्षण एवं संवर्धन के विषय में विस्तृत वर्णन उपलब्ध है। जिसका नियमित रूप से गर्भिणी को पालन करना चाहिए इसके अतिरिक्त संहिता ग्रंथों में गर्भावस्था के नौ मास बताए गए हैं उनमें से प्रत्येक मास का सेवन करना चाहिए इस सम्बन्ध में भी वर्णन मिलता है।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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