आज पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था ऋण पर चल रही है. कभी हमारे देश में ऋण लेना बहुत बुरी बात समझी जाती थी. लोग आज हर चीज के लिए ऋण ले रहे हैं और अधिकतर लोग उसे पटा भी देते हैं. लेकिन जीवन में कुछ ऐसे ऋण हैं, जिन्हें चुकाए बिना न आपका लोक सुधर सकता और न परलोक.
सनातन धर्म में मानव के सम्पूर्ण विकास और जीवन की सार्थकता के लिए जो व्यवस्था दी गई है, वे बहुत वैज्ञानिक और व्यावहारिक हैं. इनके माध्यम से मनुष्य को इस प्रकार संस्कारित किया जाता है, कि वह अपने साथ-साथ परिवार, समाज, राष्ट्र और मानवता के व्यापक हित में अपना जीवन जी सके.
वर्तमान समय में माता-पिता की उपेक्षा, प्राकृतिक संतुलन की अनदेखी, बेटे-बेटी में भेदभाव सहित अनेक विकृतियाँयों का कारण इन्हीं संस्कारों में कमी है. संस्कारों के रोपण के लिए हमारी धर्म-व्यवस्था में मनुष्य के लिए पाँच ऋण बताए गए हैं, जिनको चुकाकर ही मनुष्य अपने लौकिक जीवन सुखमय हो बनाने के साथ-साथ मरने के बाद सद्गति प्राप्त कर सकता है. इन्हें चुकाना हर सनातन धर्मी का परम कर्तव्य है. ये ऋण हैं- माँ का ऋण, पिता का ऋण, गुरु का ऋण, धरती का ऋण और धर्म का ऋण.
1.भारतीय धर्म और संस्कृति में माँ को सबसे ऊँचा दर्जा दिया गया है. भारत एकमात्र ऐसा देश है, जहां ईश्वर की अवधारणा माँ के रूप में की गयी है. नदी, प्रकृति, धरती आदि जैसी जीवन के लिए सबसे महत्वपूर्ण चीजों को माँ के रूप में संबोधित किया गया है. लेकिन जन्म देने वाली माता को सबसे ऊँचा स्थान दिया गया है.
कहते हैं कि माँ के ऋण से कभी कोई उऋण नहीं हो सकता. लेकिन इसके एक उपाय के रूप में कन्या का विवाह करने की सीख दी गयी है. कहा गया है कि कन्या की परवरिश सिर्फ विवाह के लिए नहीं करना चाहिए. शास्त्रों में कन्या को उपयुक्त रूप से शिक्षित और प्रशिक्षित करने के साथ ही उसकी इस तरह पालने को कहा गया है, कि वह भविष्य की जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और भावनात्मक रूप से सशक्त हो सके.
उसकी इस तरह परवरिश करके किसी उपयुक्त वर के साथ उसका विवाह करने से व्यक्ति माता के ऋण से काफी हद तक मुक्त हो जाता है. इसके अलावा, पूरे भाव के साथ माँ की सेवा देखभाल करना भी माता के ऋण से उऋण होने में सहायक है. इस ऋण को चुकाए बिना लोक तथा परलोक में व्यक्ति को अच्छी गति नहीं मिल सकती.
2. पिता को भारतीय संस्कृति में देवता की संज्ञा दी गयी है. पिता का ऋण चुकाना भी आसान नहीं है. शास्त्रों के अनुसार, पिता का ऋण चुकाने के लिए व्यक्ति को संतान उत्पन्न करना चाहिए. इसमें भी सिर्फ बच्चे पैदा करने से ही व्यक्ति पिता के ऋण से मुक्त नहीं होता. संतान का सही तरह से लालन-पालन करने के साथ ही उसे उपयुक्त शिक्षा और संस्कार देना अनिवार्य है.
यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि बच्चे का इस तरह चहुंमुखी विकास हो, कि वह परिवार के साथ-साथ समाज, राष्ट्र और विश्व के हित में जीवन को अर्पित करें. वह सिर्फ अपना पेट भरने वाला बनकर न रह जाए. व्यक्ति का कर्तव्य है कि बच्चों में भेदभाव न करे. बेटे और बेटी में कोई भेद न करे और दोनों को समान रूप से प्यार तथा सुविधाएं सुनिश्चित करे.
3. भारत में गुरु को गोविंद अथवा भगवान से भी ऊँचा दर्जा दिया गया है. गुरु के बिना मनुष्य को कभी ज्ञान और मोक्ष प्राप्त नहीं होता. माता-पिता भौतिक शरीर को जन्म देते हैं, तो गुरु व्यक्ति को आध्यात्मिक रूप से नया जन्म देते हैं. गुरु को दक्षिणा देने भर से कोई उनके ऋण से मुक्त नहीं हो सकता. गुरु ऋण चुकाने के लिए यह आवश्यक है की व्यक्ति दूसरों को शिक्षित करें. यदि वह किसी को स्वयं शिक्षित नहीं कर सकता तो उसे दूसरों को शिक्षा प्राप्त करने में मदद करना चाहिए. वह किसी गरीब और साधनहीन बालक या बालिका की शिक्षा में सहायक हो सकता है.
व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह बच्चों की शिक्षा सिर्फ लौकिक विषयों तक सीमित नहीं रखे. शिक्षा के तीन अंग होते हैं- ज्ञान, कौशल और संस्कार. आधुनिक समय में ज्ञान और कौशल पर एकतरफा जोर देकर संस्कार पक्ष की अवहेलना की जा रही है. संस्कार के बिना व्यक्ति ज्ञान और कौशल का श्रेठतम उपयोग नहीं कर सकता. इसके विपरीत वह इनका विध्वंसक प्रयोग करने की ओर अग्रसर हो सकता है.
4. चौथा ऋण धरती का है, जिसे चुकाए बिना मनुष्य का जीवन अधूरा है. इसे लोक ऋण भी कहा गया है. शास्त्रों में कहा गया है कि व्यक्ति को धरती का ऋण चुकाने के लिए खेती करना और पेड़ लगाना चाहिए. आज पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के खतरे से जूझ रही है. इसके कारण जीवन का अस्तित्व ही खतरे में आ गया है.
भारतीय संस्कृति में धरती का ऋण चुकाने के रूप में पेड़ लगाने के कर्तव्य को यदि पूरा विश्व अपना ले, तो प्राकृतिक असंतुलन के खतरे को दूर किया जा सकता है. हर व्यक्ति को ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाने के साथ वर्तमान पेड़ों और हरियाली की रक्षा करना चाहिए.
5. धर्म का ऋण भी किसी प्रकार कम नहीं है. धर्म ही हमें अन्य जीवों से अलग करता है. धर्म से ही हम जीवन को उसकी परिपूर्णता में जी पाते हैं. धर्महीन मनुष्य को भारत में बिना पूंछ का पशु कहा गया है. भारत में युगों-युगों से धर्म की गहराई से खोज और साधना की गयी है. धर्म की साधना करने वालों ने जीवन के बड़े-बड़े रहस्यों से पर्दा उठाया है. उन्होंने इस प्रक्रिया में योग, ध्यान, प्राणायाम, कीर्तन, जप जैसी अद्भुत साधनाओं का आविष्कार किया.
धर्म का ऋण चुकाने के लिए कहा गया है की व्यक्ति को धर्म का ज्यादा से ज्यादा प्रसार करना चाहिए. इसके लिए उपयुक्त समय निकालना चाहिए. उसकी कोशिश होनी चाहिए कि अधर्म के मार्ग पर चलने वालों को धर्म के मार्ग पर लाया जाए. मौत के बाद भी कुछ ऋण मनुष्य का पीछा करते हैं. पहले चार ऋण जीवनकाल में चढ़ते हैं, जबकि धर्म या लोक ऋण मौत के बाद चढ़ता है. मौत के बाद दाह संस्कार में लकड़ियों को जलाया जाता है. यही उस पर अंतिम ऋण होता है.
शास्त्रों के अनुसार, जीवन काल में इस ऋण को न चुकाने पर वह अगले जन्म तक पीछा करता है. ऐसा व्यक्ति जब नया जन्म लेता है, तो उसे प्रकृति से सम्बंधित कई तरह के कष्ट भोगना पड़ता है. वह गंभीर रोगों का शिकार हो जाता है. गरुण पुराण के अनुसार, लोक ऋण नहीं चुकाने पर मनुष्य प्रकृति से होने वाले रोगों, आपदाओं और दुर्घटनाओं का शिकार बन जाता है. वह जीव-जंतुओं के द्वारा काटे जाने से मर जाता है. इसे ही अकाल मौत कहा जाता है.
लोक ऋण चुकाने का एकमात्र साधन प्रकृति का संरक्षण करना है. मनुष्य को अपनी उम्र के दसवें हिस्से के बराबर पेड़ लगाना ही चाहिए. कम से कम दस छायादार और फलदार पेड़ लगाना हर व्यक्ति का कर्तव्य है. आज जिस संस्कारहीन समाज और परिवेश का विकास हुआ है, उसे दूर करने के लिए सनातन धर्म के इन ऋणों के पालन पर विशेष जोर दिया जाना चाहिए. इसमें पूरी मानवता और प्रकृति के संरक्षण का भाव निहित है.
आज परिवार, समाज, देश और विश्व को विध्वंस से बचाने के लिए हर व्यक्ति को अपनी पूरी शक्ति और निष्ठा से इन ऋणों को चुकाने के प्रति सजग होना आवश्यक है.
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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