जिस प्रकार वृक्ष की उत्पत्ति बीज से तथा बीज की उत्पत्ति वृक्ष से होती है। उसी प्रकार मानव के शरीर की उत्पत्ति मन रूपी बीज से तथा मन की उत्पत्ति माया के तीन गुणों से होती है।
1- तमोगुण से - पांच भूत, पांच उनके विषय
2- रजोगुण से - पांच कर्मेंद्रियां, पांच ज्ञानेंद्रियां
3- सतोगुण से - मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार
जिस प्रकार वृक्ष के बीज को भुनने पर वह अंकुरित नहीं हो पाता उसी प्रकार मन में यदि इच्छा न रहे तब जीव का भी पुनः जन्म नहीं होता है।
जब तक मानव जीव को मृत्यु के पश्चात पुनः जन्म लेने के लिए अनुकूल परिस्थिति नहीं मिलती है तब तक वह अपने सूक्ष्म शरीर में भ्रमण करता है। जब माता गर्भ धारण कर लेती है तथा उस जीव के अंदर जब तक लिंग प्रकट नहीं हो जाता है तब तक सूक्ष्म शरीर को लेकर जीव प्रतीक्षा करता है क्योंकि यह जीव की इच्छा पर निर्भर करता है कि वह कौन सा लिंग शरीर चाहता है।
"मन ही आत्मा के लिए शरीर, विषय और कर्मों की रचना करता है और उस मन की रचना करती है माया। वास्तव में माया ही जीव के संसार चक्र में पड़ने का कारण है।"
मन दो प्रकार के हैं इन दोनों का मूल अलग-अलग है। एक मन तो वह है जो मिटने वाले भौतिक शरीर का अंग है। यह भौतिक शरीर माया के तीन गुणों के द्वारा निर्मित होता है तथा काल के अंतर्गत आता है। यह मन सगुण है ,जो स्वप्न के पात्र जीवों के शरीर के साथ बीज रूप में रहता है।
दूसरा मन निर्गुण है, जो माया के तीन गुणों के द्वारा निर्मित नहीं है तथा अक्षर पुरुष के अखण्ड शरीर का अंग है। यह अखंड शरीर अभौतिक है तथा इसको काल समाप्त नहीं कर सकता है। निर्गुण मन ही स्वप्न का कर्ता तथा दृष्टा है, जिसे शास्त्रों में आत्मा कहा गया है।
जिसने इन दो प्रकार के शरीर तथा दो प्रकार के मन को नहीं जाना वह आध्यात्मिक ज्ञान को पूर्ण रूप से ग्रहण नहीं कर सकता है तथा इनको आत्मा का ज्ञान भी प्राप्त नहीं हो सकता है। सृष्टि की रचना को समझने के लिए इस दो प्रकार के मन को जानना आवश्यक है।
स्वप्न के जीव के शरीर के साथ जो सगुण मन है वही जीव की जन्म-मृत्यु का कारण है क्योंकि इच्छा का स्थान यह मन ही है तथा यही शरीर का बीज है।
मानव जीव के शरीर की मृत्यु के पहले जीव की चित्त की वृत्तियों में जिस गुण की प्रधानता होती है उसे उसी के अनुरूप अगले जन्म में शरीर प्राप्त होता है। तमोगुण की प्रधानता वाले मानव जीव मृत्यु के पश्चात पशु योनि प्राप्त करते हैं। रजोगुण की प्रधानता वाले मानव जीव मृत्यु के पश्चात मनुष्य योनि प्राप्त करते हैं। सतोगुण की प्रधानता वाले मानव जीव स्वर्ग लोक में विश्राम करते हैं तथा पुण्य क्षीण होने पर वह पुनः मनुष्य योनि को प्राप्त करते हैं।
कर्म की कमाई तो सिर्फ मनुष्य योनि में ही हो सकती है, किसी और योनि में कर्म की कमाई नहीं हो सकती है। पशु योनि में भी पाप कर्म भोग कर जीव पुनः मनुष्य योनि को प्राप्त कर सकता है। स्वर्ग लोक तथा नरक लोक में कर्म फल को भोगने हेतु जीव को नया भोग शरीर अथवा यातना शरीर प्राप्त होता है।
"खोज थके सब खेल खसम री, खोज थके।
मन ही में मन उरझाना, होत न काहू गम री।।"
पूर्ण ब्रह्म परमात्मा की आज्ञा से अक्षर ब्रह्म ने यह स्वप्न का संसार अपने निर्गुण मन के द्वारा बनाया जो अपने मन की सत्ता के द्वारा ही सर्वत्र स्वप्न जगत में व्याप्त है। इस स्वप्ननिक जगत के मानव जीवों का मन अक्षर ब्रह्म के मन में उलझ कर रह गया। परंतु वे इसको जान नहीं पाए। यह वाणी स्पष्ट करती है कि मन दो प्रकार के हैं।
बजरंग लाल शर्मा
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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