Published By:दिनेश मालवीय

क्या भगवान भोजन करते हैं.. दिनेश मालवीय

सनातन हिन्दू धर्म इतना गूढ़ और सूक्ष्म है, कि इसे गहराई से नहीं समझ पाने वाले लोग इसके बारे में कुछ भी बातें बनाते रहते हैं. इनमें दो तरह के लोग शामिल होते हैं. एक तो वे लोग हैं, जो इसे सचमुच नहीं समझते या नहीं समझ पाते और अपने अज्ञान में कुछ भी अनर्गल बोलते रहते हैं. दूसरे वे लोग हैं, जिनका मकसद ही हर संभव तरीके से सनातन धर्म की गलत छवि प्रस्तुत करना है. सनातन हिन्दू धर्म के विषय में ये लोग अक्सर कहते मिल जाएँगे, कि “भगवान् क्या खाना खाते हैं ? वे ऐसा इस बात को लेकर कहते हैं, कि हिन्दू लोग साकार भगवान् की पूजा भी करते हैं. भगवान् के जीवंत अस्तित्व के साकार रूप में उनका विग्रह पूजा जाता है. हम उन्हें अपने घर-परिवार का मुखिया और मालिक मानते हैं. उनके विग्रह को सुलाते हैं, जगाते हैं, सर्दी में उनके लिए गरम वस्त्र बनवाते हैं. त्योहारों पर उन्हें नए वस्त्र अर्पित करते हैं. हम जो कुछ भी ग्रहण करते हैं, सबसे पहले उन्हें अर्पित कर उसका प्रसाद के रूप में सेवन करते हैं. त्योहारों पर स्वादिष्ट व्यंजन बनाते हैं, जो सबसे पहले भगवान को अर्पित करते हैं. उनके बनाने में पूरी पवित्रता बरती जाती है.  

 

 

यह बहुत सूक्ष्म भाव है, जिसकी समझ ऐसा लोगों को होना मुश्किल है, जो इस धर्म को नहीं समझते. भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रीमदभगवतगीता में कहा है, कि जो भी भक्त श्रद्धा से मुझे पात्र-फूल या जो भी सामग्री अर्पित करता है, उसे मैं ग्रहण करता हूँ. ज़रा देखिये, कि कितना कोमल भाव है. हिन्दू घर में भोजन या जो भी पकवान बनता है, तो सबसे पहले उसे पूजा-स्थल में प्रतिष्ठित ठाकुरजी को अर्पित किया जाता है. अधिकतर घरों में तो पूजा किये बिना को पानी भी नहीं पीता.

 

 

समझ-समझ का फेर होता है. आलोचक कहते हैं, कि भक्त लोग अपनी जुबान के स्वाद के कारण बहुत-से पकवान बनाते हैं. इससे भगवान् का क्या लेना-देना? भगवान् क्या इसे खाते हैं ? उन्हें यह महसूस हो ही नहीं सकता. भगवान् क्या कोई स्थूल अस्तित्व हैं, कि स्थूल रूप से प्रकट होकर भोग को ग्रहण कर लें. यह तो भक्त का भाव है. भक्त का तो यह व्श्वास ही होता है, कि भगवान् ने  उसके द्वारा अर्पित सभी चीजों का सेवन किया है. भगवान् को अर्पित करने के बाद भोजन या कोई अन्य वस्तु प्रसाद हो जाती है. भक्त कहते हैं-“तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा”. यानी हमें जो कुछ भी प्राप्त है, वह आपका ही है, आपकी कृपा से ही मिला है. इसलिए आपकी चीज आपको की अर्पित की जा रही है. इसमें मेरा कुछ नहीं है.

 

 

हिन्दू संस्कृति में एक और बहुत सुंदर परम्परा है, जिसके बहुत व्यापक और गूढ़ अर्थ हैं. हिन्दू लोग भोजन करने से पहले भोजन की थाली के चारो तरफ जल छिड़कते हैं. यह भोजन करने के स्थान को शुद्ध करने के लिए किया जाता है. इसके बाद भोजन के पांच निवाले निकालकर थाली के पास रखे जाते हैं.  यह जीवन में पांच ऋण चुकाने या पांच प्रमुख कर्तव्यों की याद करते रहने के लिए किया जाता है.

 

 

पहला निवाला देवताओं यानी सूक्ष्म सात्विक शक्तियों को अर्पित होता है, जिनकी कृपा से हमें संरक्षण प्राप्त होता है. दूसरा निवाला अपने पूर्वजों के लिए होता है, जिनकी कृपा से हम अस्तित्व में हैं. तीसरा निवाला ऋषियों के लिए होता है, जिनकी कृपा से हमें धर्म और जीवन के सुंदर संस्कार प्राप्त हुए हैं. चौथा निवाला समाज के उन मनुष्यों के निमित्त होता है, जिनका कोई सहारा नहीं है और जिनकी हमें मदद करनी चाहिए. पांचवां निवाला भूतों के लिए होता है. भूत का मतलब भूत-प्रेत नहीं, बल्कि प्रकृति के दिखाई देने वाले या नहीं दिखायी देने वाले जीवों के लिए है, जिनकी हमें सहायता करनी चाहिए. गाय, कुत्ता, चीटी, पंक्षी आदि अनेक ऐसे जीव हैं, जिनकी हमें सहायता करनी चाहिए.

 

 

इन पांच निवालों से हमें अपने जीवन के इन पांच पवित्र कर्तव्यों का स्मरण होता रहता है. इसलिए, किसी के भी झूठे बहकावे में आकर अपने धर्म, संस्कृति और परम्पराओं से विमुख नहीं हों. उन्हें समझकर उनका यथाशक्ति पालन करने का प्रयत्न करें. सनातन धर्म की हर बात के पीछे कोई गहरा रहस्य छिपा होता है. इसे समझने की कोशिश कीजिए. नहीं मालूम हो, तो किसी बुजुर्ग या ज्ञानी व्यक्ति से निश्छल में से जिज्ञासा कीजिए. वे आपको इसे समझा देंगे. इसलिए भोजन, वस्त्र या कोई भी उपयोग की चीज खुद सेवन करने से पहले भगवान् को अर्पित कर अपने जीवन को आनंद से भर लीजिये.    

 

 

धर्म जगत

SEE MORE...........