 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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यहाँ एक ऐसी चर्चा चलती है जो शरीर की मृत्यु होने के बाद भी खत्म नहीं होती। वह है जाति चर्चा। जिस बात से किसी का कोई लेना देना ही नहीं, उसी बात पर सभी का ध्यान टिका रहे तो कितनी हैरानी की बात है?
जिसने देह भाव ही छोड़ दिया, कुल परिवार त्याग दिया, जो जगत के संबंधों से ऊपर उठ गया, जो सब बंधनों से छूट गया, उसे किसी जाति में रखा जा सकता है?
एक बार मेरी अपने गुरु जी स्वामी मित्रानन्द जी महाराज (मूल नाम श्री मुरलीधर पांडेय बनारस) से इस बारे में चर्चा हुई थी। उन्होंने कहा- "लोकेशानंद! तुम जाति के माली हो। और मैं जाति से धोबी हूँ।"
ऐसा कह कर वे बड़े ही शांत धीर गंभीर हो गए। बोले- "बेटा! मैं अंतःकरण धोता हूँ। मन की चुनरी का काम आदि मैल निकाल कर, उसे भगवान के औढ़ने लायक बनाता हूँ। इसलिए मैं धोबी हूँ। और तुम्हें मैंने माली बनाया है। जगत की बगिया में, जहां से तुम गुजर जाओगे, वहाँ कुछ फूल खिला जाओगे। अतः तुम माली हो।"
लोकेशानन्द कहता है कि मौत की मंडी में लाश की जाति कौन देखे? सब संग्रहों का अंत विनाश है, उन्नतियों का अंत पतन, संयोग का अंत वियोग और जीवन का अंत मृत्यु है।
जैसे पका फल गिरता ही है, वैसे ही शरीर मरता ही है। सुदृढ़ खंभे वाला मकान भी समय पाकर गिर जाता है, मनुष्य बुढ़ापे और रोग से मर जाता है। यमुना का जो जल समुद्र में चला जाता है, वो लौटता नहीं, और जो समय बीत जाता है वो फिर लौट कर आता नहीं।
गर्मी में सूर्य जैसे धीरे धीरे विशाल जलाशय को भी सूखा डालता है, वैसे ही दिन रात प्राणी की आयु को सूखा डालते हैं।
मृत्यु जन्म से ही साथ चलती है, साथ ही बैठती है, और मनुष्य को साथ लेकर ही लौटती है। लोग सूर्योदय, सूर्यास्त और ऋतु परिवर्तन पर खुश होते हैं, पर यह नहीं जानते की प्राण क्रमशः क्षीण हो रहे हैं।
जैसे मरने पर आपको अपने शरीरादि से कोई संबंध नहीं रहता, उसी प्रकार जीते जी भी आपका उससे कोई संबंध नहीं है। तब वह शरीर रूपी फल किस जाति के वृक्ष से आया है, इसका विचार कोई मूर्ख ही कर सकता है।
आप तो उसका विचार करो, जो जाति रहित है। आत्मा का विचार करो, परमात्मा का विचार करो।
 
 
                                मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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