द्रौपदी का प्रादुर्भाव महाराज द्रुपद के यहां यज्ञ कुण्ड से हुआ था। ये अत्यन्त सुकुमार, सुन्दरी और परम साध्वी थीं। पाँचों पाण्डव इनके पति थे। कपट-द्यूत में समस्त राज्य के बाद महात्मा युधिष्ठिर इन्हें भी दाव में हार गये।
द्रौपदी उस समय एकवस्त्रा थीं, परंतु दुराचारी दुर्योधन के क्रूर आदेश से भरी सभा में लायी गयी। उनकी कातर प्रार्थना तथा बहते हुए नयनाश्रु उन पाषाण-हृदय को द्रवित न कर सके। दस सहस्र गज की शक्ति रखने वाला दुष्ट दुशासन उनकी साड़ी पकड़कर खींचने लगा।
द्रौपदी काँप गयी। उसकी आँखें मूँद गयी और प्राण श्रीकृष्ण के समीप चले गये। भगवान का वस्त्र अवतार हो गया और फिर दस हजार गज बल घट्यो, घट्यौ न गज भर चीर। दुशासन लज्जित होकर पसीना पोंछते हुए बैठ गया !
वनवास के समय की बात है। दुर्योधन की प्रेरणा से अति शीघ्र कुपित होने वाले महर्षि दुर्वासा अपने दस सहस्र शिष्यों के साथ युधिष्ठिर के पास तब आये, जब भोजन समाप्त हो चुका था। युधिष्ठिर ने प्रार्थना की 'स्नान कर आइये।'
विपत्ति में पड़ी द्रौपदी के आँसू छलक पड़े। एकमात्र आधार श्रीकृष्ण की पुकार हुई। नन्दनन्दन दौड़े आये। 'भूख लगी है' श्रीकृष्ण के कहने पर द्रौपदी के मुँह से निकल पड़ा ‘तुम्हें भी इसी समय मजाक सूझी।'
धोया हुआ रिक्त पात्र सामने रख दिया। एक पत्ता सटा था उसमें! श्रीकृष्ण ने मुंह में डाल लिया और डकार ले ली। इधर शिष्यों सहित दुर्वासा का पेट फूल आया। उल्टी-सीधी खट्टी डकारें आने लगीं। दुर्वासा की आँखों में अम्बरीष घूम गये। बाहर-ही-बाहर प्राण बचाने के लिये सशिष्य सिर पर पाँव रखकर भाग खड़े हुए।
सत्यभामा के साथ श्रीकृष्ण वन में पांडवों से मिलने आये थे। सत्यभामा ने द्रौपदी से पूछा, 'बहन, तुम्हारे पति सदा तुम्हारे वश में रहते हैं। ऐसा कोई व्रत, तप, तीर्थ, मंत्र, औषध, विद्या, जप, हवन या उपचार मुझे भी बता दो, जिससे पति को अपने वश में रख सकूँ।'
द्रौपदी को सत्यभामा का यह प्रश्न अच्छा नहीं लगा। अत्यन्त शांति से उन्होंने कहा-'पति को मन्त्र यन्त्र से वश नहीं किया जाता। मेरे पति जिस प्रकार प्रसन्न रहें, मेरा वही काम है। उनका सुख ही मेरा सुख है। मैं ईर्ष्या, अभिमान और कटुभाषण नहीं करती। स्त्रियोचित उत्तम गुण ही पुरुषों को आकर्षित कर लेते हैं।
सरलता, सज्जनता, सदाशयता, सच्चरित्रता, सत्प्रेम, सद्बुद्धि, सद्भावना, सेवा और पति के सुख के लिये। सतत सत्य प्रयत्न ही उनको अपना बना देता है।'
द्रौपदी परम विदुषी, सदाचारिणी उदार, क्षमाशीला और भक्तिमती थीं। इनकी गणना पंच कन्याओं में है।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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