 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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कहानी एक समय की है, जब महाभारत के युद्ध की तैयारियां चल रही थी। इस महाकाव्य के प्रमुख चरित्रों में से एक चरित्र थे द्रोणाचार्य, जिन्होंने कौरवों की सेना के सेनापति के रूप में अपने आप को समर्पित किया था। दूसरी ओर, उनके प्रिय शिष्य अर्जुन थे, जो की एक वीर और योद्धा के रूप में महाभारत के मैदान में अपने प्रतिद्वंद्वी शत्रुओं के साथ लड़ रहे थे।
पहले दिन का युद्ध आरंभ हुआ, और इसमें अर्जुन ने अपनी वीरता का परिचय दिखाया। उन्होंने सबके सामने बेहद प्रशंसा के लायक प्रदर्शन किया, और यह दुर्योधन को चिंतित कर दिया क्योंकि वह द्रोणाचार्य के साथ रहकर भी अर्जुन से जीत नहीं सका।
दुर्योधन ने इस समस्या को द्रोणाचार्य के सामने रखा और कहा, "गुरुदेव! अर्जुन तो आपका शिष्य मात्र है, फिर वह आपके ऊपर भारी कैसे पड़ रहा है?" द्रोणाचार्य ने उसकी चिंता को सुनकर विचार किया और फिर उन्होंने एक महत्वपूर्ण तथ्य को याद दिलाया।
द्रोणाचार्य ने कहा, "दुर्योधन! तुम ठीक कहते हो कि अर्जुन मेरा शिष्य है, लेकिन उसने संघर्ष के समय अपने जीवन में कई चुनौतियों का सामना किया है, और उसने उन चुनौतियों को पार किया है। वह एक अद्भुत योद्धा है और उसका योगदान इस युद्ध में महत्वपूर्ण है।
मैं उसकी सारी विद्याओं से भी परिचित हूँ, किंतु उसका सारा जीवन संघर्ष करने में व्यतीत हुआ है; जबकि मैंने तुम्हारे दरबार में सुविधा के दिन गुजारे हैं, विपत्तियों से संघर्ष करने के कारण आज वह मुझसे ज्यादा बलवान है।"
इस कथा से हमें यह सिखने को मिलता है कि संघर्षों से ही मनुष्य का व्यक्तित्व निखर कर आता है।
 
                                मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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