द्रोणाचार्य की कूटनीति
श्रीकृष्णार्पणमस्तु -32 रमेश तिवारी तत्कालीन आर्यावर्त में बहुधा ऐसा कोई क्षेत्र हो, जहां कृष्ण प्रासंगिक न हों। महान आचार्य सांदीपनि उनकी प्रशंसा करते नहीं अघाते थे। और द्रोपदी तो अलैअलानिया कहती थी! विवाह करूंगी तो सिर्फ कृष्ण से ही। किंतु सम्राट जरासंध भी पीछे नहीं था- उसने भी तो घोषणा कर रखी थी! कहता- कृष्ण..! विश्व में कहीं भी क्यों न भाग जाये, छिप जाये, किंतु उसको मारूंगा तो बस मैं ही। और श्री कृष्ण! वे तो पूर्वानुसार- असंभव को संभव बनाने में ही लगे रहते थे। कृष्ण अर्थात जीवन: श्रीकृष्णार्पणमस्तु-24 आज हम देखेंगे कि इन विपरीत धाराओं, मतभेदों, कटुता और कंटकों के मध्य कृष्ण ने अपनी सफलता के आस्तरण (कालीन) बिछाये तो बिछाये कैसे? जो द्रुपद व्यक्तिगत द्वेष के अग्नि कुंड में किसी भी वस्तु को झोंक देना चाहते थे, उन नरेश को कृष्ण ने, कैसे अपनी सुई के महीन छेद से धागे की तरह निकाला तो निकाला कैसे! तब की घटनाओं के प्रमुख नायक तो कृष्ण ही होते थे फिर रंगमंच भले ही किसी दूसरे का हो। द्रुपद का सांदीपनि के माध्यम से यह प्रस्तावित करना कि वे पुत्री द्रोपदी के साथ विवाह करने पर कृष्ण को विपुल धन, सम्पत्ति दे देंगे और ध्वस्त मथुरा का पुनर्निर्माण करवा देंगे। शिखंडी का यौन परिवर्तन : श्रीकृष्णार्पणमस्तु- 25 कृष्ण गुरु से कहते थे- गुरुदेव ..! क्या द्रुपद मुझको अपना मांडलिक (आथीन/करद) बनाना चाहते हैं? वे चाहते हैं कि मैं द्रोपदी से विवाह करके द्रोणाचार्य का वध करने का संकल्प लूं। उनके शिष्य अर्जुन और कुरु सेना का वध करुं। अपने शिशु काल से प्रतिशोध का भाव लेकर पली, बढी़ द्रोपदी का आश्रित बनूं। पितृव्य उनसे विनम्रता पूर्वक कह दीजिए- कृष्ण अपने फुफेरे भाइयों को जीवन भर सुखी देखना चाहता है। कृष्ण उनका शुभेच्छु भी है। गुरूदेव द्रुपद से आधा राज्य छीन लेने की हठ में ही तो द्रोणाचार्य ने शूर्पारक (मुंबयी क्षेत्र) स्थित परशुराम के आश्रम में जाकर नये सिरे से आधुनिक सैन्य प्रशिक्षण लिया। महान धनुर्विद् बनने के बाद ही तो वे आर्यावर्त के समृद्ध साम्राज्य हस्तिनापुर में राजकुमारों के प्रशिक्षक बन सके। अब तक कृष्ण चमत्कार बन चुके थे। हस्तिनापुर के सहयोग से द्रुपद से प्रतिशोध लेने वाले द्रोणाचार्य सत्ता तो नहीं चाहते थे। परन्तु वे प्रभुत्व के भूखे अवश्य थे। सत्ता से अधिक वे यश, कीर्ति और शौर्य जगत के चक्रवर्ती बनना चाहते थे। अपने इस अभीष्ट की प्राप्ति हेतु उनके पास हस्तिनापुर था। वे सैन्य प्रमुख थे। शस्त्रों का निर्माण करना जानते थे। और..! भयभीत जरासंध श्रीकृष्णार्पणमस्तु -27 कुरू राजकुमार उनके अनुगत थे ही। सर्व श्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन तो द्रुपद को विजय कर उनके चरणों में डाल ही चुका था। भीष्म की समीपता भी उन्हें प्राप्त थी। उनकी मानसिक कल्पना कुरूवंश के स्कंधों पर सवार होकर आर्यावर्त के पर्जन्य को प्रभावित करना थी। द्रोणाचार्य की दृष्टि में कृष्ण का विक्रम भी था। अभी तो द्रोणाचार्य अपनी कल्पनाओं में ही खोये हुए थे। उनकी सूक्ष्म दृष्टि में दुर्योधन आदि 100 भाई और युधिष्ठिर आदि 5 भाइयों की बुद्धि,लोकप्रिता एवं कौशल का आकलन करना था। दुर्योधन उनके पुत्र अश्वत्थामा का अभिन्न था। अभी तो एक प्रकार से हस्तिनापुर द्रोणाचार्य और उनके सैन्य विशेषज्ञ स्याल (साले) कृपाचार्य की मुट्ठी में आ चुका ही था। द्रोणाचार्य, दुर्योधन की उद्दंडता की अपेक्षा युधिष्ठिर के शांत, सौम्य और न्यायोचित दृष्टिकोण के प्रशंसक थे। किंतु वे जानते थे कि पुत्र अश्वत्थामा के मित्र दुर्योधन की मूर्खता का शोषण करना अधिक सरल है। वे पुत्र के इस सखा की हरेक गतिविधि पर नजर रखते थे। धृतराष्ट्र के स्थान पर स्वयं ही राजा बनने की दूर्योधन की कल्पना और उस कल्पना को साकार करने की शकुनि की योजना ने द्रोणाचार्य को सतर्क कर दिया था। सम्राट की आत्मा कांप उठी-श्रीकृष्णार्पणमस्तु -28 यह समझते हुए भी कि पांडव कृष्ण के भाई हैं। कृष्ण उनके शुभ चिंतक और न्याय,नीति के पक्षकार हैं, जब दुर्योधन ने अपना दूत भेजकर कृष्ण को हस्तिनापुर आमंत्रित कर लिया। द्रोणाचार्य के तो कान ही खड़े हो गये। यह क्या अगर द्वारिका और हस्तिनापुर में यह नवीन मित्रता हो जाए तो- उनके स्वप्न तो बिखर गये मानो। इसी मध्य जन दबाव और विशाल कुरूवंश (जो बहुत बड़ा था) के पक्षथर होने से युधिष्ठिर को युवराज बनाने की मांग प्रबल होने लगी। भीष्म ने द्रोणाचार्य का परामर्श लिया। अवसर देखकर इस कूटनीतिज्ञ (द्रोणाचार्य) ने भी अपनी सहमति दे दी। युधिष्ठिर के युवराज बनने की प्रसन्नता अधिक दिनों तक नहीं रह सकी। नीति, न्याय और धर्म पर चलने वाले इस युवराज युधिष्ठिर ने अमर्यादित किसी भी राजाज्ञा का निष्पादन करने से साफ साफ मना करना प्रारंभ कर दिया। अपनी मनचीती न होते देख, द्रोणाचार्य ने दुखी होकर पुत्र के माध्यम से एक चाल चली। पुत्र को बुलाया- बोले- पुत्र तुमने एक बार कहा था न- कि मैं पांडवों के प्रति क्यों आग्रही हूं...! तुम एक दम सही थे। क्या यह बात तुमने दुर्योधन को बताई थी। पुत्र के, हां कहने पर गंभीर चिंतन का अभिनय करते हुए पिता बोले- तुम ठीक कहते थे पुत्र। अब मैं सोचता हूं कि मुझको ऐसा नहीं करना चाहिए था। तो ठीक है। अब से मैं ऐसा नहीं करूंगा अश्वत्थामा प्रसन्न हो गया। फिर आतुर होकर बोला- पिताजी क्या यह बात मैँ दुर्योधन को बता सकता हूं। अपने उद्देश्य को सफल होते देख और सफल करने की दृष्टि से द्रोणाचार्य बोले- जैसा तुम उचित समझो पुत्र। और फिर...! यहीं से दुर्योधन का उत्साह बढऩे लगा। स्त्री सम्मान और श्रीकृष्ण श्रीकृष्णार्पणमस्तु-30 वह मामा के परामर्श पर पांडवों को समाप्त करने की नित नयी योजना बनाने लगा। यहीं से वारणावत के अग्निकांड की योजना ने आकार ले लिया। कुंती सहित पांडवों के मारे जाने के समाचार से द्वारिका भी दहल गयी। फिर तो सभी घटनायें ऐसी हुयी कि धृतराष्ट्र और पांडु के पुत्रों का विवाद महाभारत नामक घातक युद्ध में ही परिणित हो गया। इस समूचे षड़यंत्र से निपटने के लिये श्रीकृष्ण को भी सक्रिय कर दिया। द्रोपदी के स्वयंवर के पीछे की इस अंतर्कथा का जानना भी आपको आवश्यक था। आज की कथा बस यहीं तक। तो मिलते हैं। तब तक विदा। श्रीकृष्णार्पणमस्तु।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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