 Published By:अतुल विनोद
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द्रुपद, कृष्ण को जमाता बनाना चाहते थे
श्रीकृष्णार्पणमस्तु-31 रमेश तिवारी द्रुपद कृष्ण के प्रति बहुत आग्रही हो गये। वे किसी भी मूल्य पर कृष्ण को अपना जामाता बनाना चाहते थे। कृष्ण को शस्त्र और शास्त्रों के ज्ञान में पारंगत करने वाले ऋषि सांदीपनि को इस बात का गर्व था कि- संपूर्ण आर्यावर्त में एकमात्र कृष्ण ही हैं, जिनके, हाथों में उनका धनुष हो तब वे कितने घातक होते हैं। वे जानते थे कि दौड़ते हुए रथ से बाण चलाना कितनी कठिन कला है। वेग, शीध्रता, छिप्रता और तत्परता, इन सबका दौड़ते हुए अश्वों की गति के साथ समन्वय करना पड़ता है। दैव योग से ही कृष्ण को यह सब प्राप्त था। द्रुपद और सांदीपनि में घनिष्ठता थी। आपसी सौहार्द के कारण ही वर्ष में एक बार ही सही। श्रीकृष्णा के जन्म की अवर्णनीय कथा का संबंध महान मुनि गर्ग से भी है एक, दो सप्ताह के लिये सांदीपनि द्रृपद की राजनगरी काम्पिल्य में प्रवास करते थे। तत्कालीन ऋषियों में शस्त्र और समरनीति के एकमात्र प्रशिक्षक थे सांदीपनि। वे आर्यावर्त में पैदल घूमकर अपने सभी आश्रमों में जाते। कुछ समय ठहरते। आश्रम में रहने वाले शिष्यों को आधुनिकतम ज्ञान प्रदान करते। हां, वे वर्षाकाल का समय मुख्य आश्रम अंकपाद में ही व्यतीत करते धे। एक अथवा दो माह के लिये समुद्र किनारे प्रभाष क्षेत्र में रहते। एक,दो सप्ताह का समय कुरुक्षेत्र स्थित वेद व्यास जी के आश्रम मे भी ठहरते। यहां आर्यावर्त के सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण आकर अपने ज्ञान की बारीकियों, कमियों अथवा जिज्ञासाओं को समझते। शंकाओं को दूर करते। इसी क्रम में वे काम्पिल्य पधारे थे। द्रुपद आग्रही, कठोर तथा अभिमानी राजा थे। परन्तु विशुद्ध धर्म मार्ग पर ही चलते थे। अपना शासन भी धर्मानुसार ही चलाते थे। किंतु जब से द्रोणाचार्य से अपमानित हुए, तब से निराश, उदास और कुंठित से हो गये थे। उनके जीवन का उद्देश्य मात्र रह गया था द्रोणाचार्य से प्रतिशोध लेना। उनको दंडित करना। वे द्रोणाचार्य के अतिरिक्त किसी से घृणा करते थे तो, वह था। द्रोणाचार्य का सर्वोत्तम धनुर्धारी शिष्य अर्जुन। द्रोणाचार्य की आज्ञा से ही अर्जुन ने उनके शत्रु द्रुपद को युद्ध में पराजित किया था। हाथ बांधे, फिर गुरू चरणों में लाकर डाल दिया। अपने पूर्व सहपाठी द्रोणाचार्य को काम्पिल्य का गंगा के उत्तरी तट का आधा राज्य समर्पित करके त्राण मिला था द्रुपद को। अत:द्रुपद के जीवन का एकमात्र उद्देश्य रह गया था। द्रोणाचार्य। अर्जुन और प्रतिशोध। श्रीकृष्ण का चक्रव्यूह……………..श्रीकृष्णार्पणमस्तु -4 द्रुपद के पुत्र धृष्टद्युम्न और सत्याजित इतने योग्य धनुर्धर नहीं बन सके थे कि द्रोणाचार्य से प्रतिशोध ले सकें। हां याज और उपयाज नामक मुनियों द्वारा संपन्न कराये गये पुत्रेष्टि यज्ञ से प्राप्त कन्या याज्ञसेनी (द्रोपदी) अवश्य कहती- पितृव्य! यदि मैं आपका पुत्र होती तो द्रोणाचार्य को आपके चरणों में डाल देती। आपका प्रतिशोध मैं अवश्य पूरा करती। उसका यह भी संकल्प था कि मैं उस राजकुमार से ही विवाह करुंगी जो आर्यावर्त का सर्वोत्तम धनुर्धर होगा और, जो द्रोणाचार्य का दर्प चूर चूर कर दे। द्रुपद को अपनी इस पुत्री पर गर्व था। और जब वे सांदीपनि के साथ प्रासाद में थे तो इन्हीं सब बातों पर बातचीत चल रही थी। द्रोपदी के विवाह हेतु योग्य वर नहीं मिल रहा था। वह 20 वर्ष की हो चुकी थी। द्रुपद ने कहा- आचार्य! संपूर्ण आर्यावर्त के राजकुमार आपके पास शिक्षा ग्रहण करने आते हैं। आप ही कोई योग्य धनुर्धर बताइये, जो द्रोपदी से विवाह कर ले। मेरे मनोरथ को भी पूर्ण कर दे। चक्र सुदर्शन का प्रथम प्रयोग……………………श्रीकृष्णार्पणमस्तु -7 चर्चा में तल्लीन दोनों सुह्रद किसी परिणाम पर नहीं पहुंच पा रहे थे। जब द्रुपद हठ ही करने लगे तो, जानते हुए भी सांदीपनि को अर्जुन का नाम बताना पड़ा। उन्होंनेे कहा- राजा.! ईश्वर की कृपा से सर्वश्रेष्ठ योद्धा तो अर्जुन ही है। एकमात्र है, जो रात्रि में भी लक्ष्यवेध कर सकता है। अप्रितम धनुर्धर है। धनुर्विद्या में पारंगत। अजेय! किंतु! द्रुपद ने प्रस्तुत नाम को नकार दिया। बोले- आचार्य..! और नाम बतायें..! किंतु सांदीपनि द्वारा विशेषणों के साथ कर्ण का नाम सुझाया गया, तो राजा ने उसको यह कहते हुए नकार दिया कि वह तो सूतपुत्र है। विवाह संभव नहीं। इसके साथ ही सांदीपनि ने अवंती कुमार, विंद और अनुविंद सहित अनेक राजकुमारों के नाम सुझाये। किंतु राजा संतुष्ट नहीं हो रहे थे। और बताइये! और बताइये ही कहते रहे। जब सांदीपनि शांत और मौन हो गये। द्रुपद बोले! आचार्य एक बार फिर से आप अपने सभी शिष्यों पर दृष्टि दौडा़इये! सुना है आपका शिष्य कृष्ण दौड़ते हुए रथ पर बैठकर, चार अश्वों को सम्हालते हुए घातक लक्ष्यभेद के लिये प्रसिद्ध है। उसने कंस, कालयवन और जरासंध के मित्र अर्बुद (माउन्ट आबू) के राजा शाल्ब का वध किया है। उस अहंकारी जरासंध की भी दुर्गति की है, जो आजकल सीमा विस्तार के उद्देश्य से काशी पर दृष्टि रखे हुए है। श्रीकृष्णार्पणमस्तु के संबंध में- न्यूज़ पुराण विशेष वह आपका शिष्य है। आप बात करिए न! आपकी बात वह मान जायेगा। उसको लेकर आइये। उससे कहिये। मैं उसको मनवांछित धन दूंगा। उसकी विध्वंस पडी़ मथुरा के पुनर्निर्माण में भी अच्छा सहयोग करूंगा। सांदीपनि ने अपने शिष्य की प्रशंसा से गर्वोन्मत्त होते हुए कृष्ण की युद्ध योग्यता की खूब सराहना तो की किन्तु धीरे से कहा- सब कुछ तो ठीक है, परन्तु कृष्ण का विश्वास नहीं किया जा सकता। आगे की कथा बस यहीं तक, तो मिलते हैं तब तक विदा। श्रीकृष्णार्पणमस्तु।
 
                                मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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