Published By:धर्म पुराण डेस्क

ग्रहण और वैज्ञानिक सिद्धांत

खगोल शास्त्रियों के अनुसार जब पृथ्वी और चन्द्रमा परिक्रमा करते हुए एक ही रेखा पर आ जाते हैं अर्थात जब सूर्य और पृथ्वी के बीच चंद्रमा आ जाता है तो उस काल खण्ड के समय सूर्य की किरणें पृथ्वी पर नहीं पहुँचती और पृथ्वीवासी को सूर्य का उतना भाग कटा हुआ दिखाई देता है, उस समय को सोलर एक्लिप्स या सूर्य ग्रहण कहा जाता है।

खगोल शास्त्रियों के अनुसार केवल सूर्य के प्रकाश से ही आकाश मंडल के सारे ग्रह प्रभायुक्त हैं, पृथ्वी और चन्द्रमा को सूर्य से ही प्रकाश प्राप्त होता है, सामान्यतः पूर्णमासी को चंद्रमा संपूर्ण रूप में पृथ्वी से दिखाई देता है। 

जब चन्द्रमा अपनी कक्षा में घूमता हुआ पृथ्वी के चारों ओर परिक्रमा करता है और किसी पूर्णमासी के दिन चन्द्रमा और सूर्य के बीच में पृथ्वी का कोई भू भाग आ जाता है तो उस कालखंड के दौरान सूर्य की किरणें चंद्रमा तक नहीं पहुंच पाती है और उतना हिस्सा कटा हुआ दिखाई देता है, उसे चन्द्र ग्रहण कहा जाता है|

भारतीय मनीषियों ने और खगोल शास्त्रियों ने भी वराहमिहिर काल से इस बात पर विचार किया कि अंतरिक्ष की इस घटना का मनुष्य के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है, विशेष ध्यान दिया कि ग्रह अपनी अपनी गति से परिक्रमा अवश्य कर रहे हैं। लेकिन नक्षत्र मंडल में स्थित इन ग्रहों का जीव जंतुओं सहित मनुष्य से गहरा सम्बन्ध अवश्य है। इसी कारण जब नक्षत्र मंडल में ग्रहण की स्थिति बनती है तो प्रकृति पर, पृथ्वी पर प्रभाव अवश्य ही पड़ता है।

सूर्य ग्रहण और साधना विज्ञान-

भारतीय साधना के क्षेत्र में ग्रहण का अपना अलग ही महत्व है। वैसे तो ग्रहण काल कई कार्यों के लिए वर्जित है, उस समय तो भोजन और जल भी ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि उस समय जो रश्मियाँ गतिशील होती है, वे प्रायः नुकसानदायक होती हैं, परन्तु यह बात भी सत्य है कि विष भी कई बार अमृत की तरह लाभकारी होता है और वह जान लेने के बजाय जीवन देता है।

इसी प्रकार ग्रहण में वैज्ञानिक रूप से भले ही बुराइयां क्यों न हों, पर उसमें एक गुण अवश्य है, और वह यह कि ग्रहण साधना हेतु अत्यधिक उपयोगी काल है। 

साधारण समय में किया गया एक लाख जप, सूर्य ग्रहण के समय किये गए कुछ मंत्र जप के बराबर होता है अर्थात ग्रहण के समय किया गया मंत्र जप साधारण समय के किए गए मंत्र जप से कई गुणा अधिक प्रभावी होता है। इस तरह कोई भी साधना यदि ग्रहण काल में संपन्न की जाए, तो उसका शतगुना फल साधक को प्राप्त होता है, जिससे कि उसकी सफलता निश्चित होती है।

सूर्य सभी ग्रहों में प्रमुख है। एक ओर जहाँ वह मान, प्रतिष्ठा, ऐश्वर्य, ख्याति, ज्ञान, बुद्धि, संतान, पूर्ण आयु, स्वास्थ्य आदि का कारक है, वहीं आत्मकारक होने के कारण वह आत्म कल्याण में भी सहायक होता है।
 

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