 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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प्रियदर्शी सम्राट अशोक के सम्बन्ध में यद्यपि इतिहासकारों ने बहुत कुछ लिखा है, पर बहुत शेष है अब भी। उन 'जान-प्रियजन' (सामान्य नागरिक के लिये अशोक कालीन शब्द) के उपदेशक और स्वयं सम्राट होते हुए 'जान-प्रियजन' से शिक्षा ग्रहण के उद्देश्य से उसमें जाने वाले प्रियदर्शी सम्राट की पूरी बातें अब भी प्रकाश में आयी नहीं हैं।
सम्राट बिन्दुसार बहुत बड़ा साम्राज्य छोड़ गये थे। चन्द्रगुप्त मौर्य के उन सुयोग्य पुत्र ने अपनी विजय ध्वजा हिमालय से कन्याकुमारी तक विस्तीर्ण करने का पूरा प्रयत्न किया था। अपने युवराज अशोक से उन्हें बहुत बड़ी आशा थी और भय भी था। कठोर, उग्र, क्रूर प्रकृति के अशोक जनता में ' चण्डाशोक' विख्यात थे।
सम्राट बिन्दुसार की मृत्यु के चार वर्ष पश्चात परिषद की अनुमति से अशोक सिंहासनासीन हुए। अभिषेक के बाद के बारह वर्ष अशोक के जीवन के क्रूरता, युद्ध, विजय के वर्ष है। अंतिम युद्ध था कलिंग का। रणभूमि शवों से पटती जा रही थी। कलिंग के देशभक्त शूर सहर्ष बलि हो रहे थे। सहसा अशोक का हृदय पलटा-विजेता अशोक ने विजय के समीप पहुंचकर युद्ध रोक दिया।
पश्चात्ताप ने विशुद्ध कर दिया उन्हें सच ही तो है- भूमि, पर्वत, नदियों की सीमाओं से सीमित राज्य की अपेक्षा मानव-हृदय का साम्राज्य महान् है। अशोक ने उस महान साम्राज्य के लिये वहीं रणभूमि में शस्त्र फेंक दिये और सचमुच मानव-हृदय के प्रियदर्शी महान सम्राट हुए।
राज्याभिषेक के तेरहवें वर्ष में विजय दुन्दुभि के स्थान पर अशोक के धर्म-दुन्दुभि बजी। स्वयं सम्राट जनता में धर्म प्रचार, धर्म-शिक्षा के लिये घूमने लगे। सम्राट के सगे भाई महेन्द्र और बहन संघमित्रा बौद्ध भिक्षु एवं भिक्षुणी वेश में सिंहल पहुँचे। नेपाल में स्वयं सम्राट और उनके पश्चात उनकी प्रिय पुत्री चारुमती ने धर्म प्रचार किया।
हिंसा, क्रूरता और उसके परिणामस्वरूप जो प्रतिक्रिया हुई, उससे स्वभावतः सम्राट अशोक अहिंसा एवं जीव-दया-प्रधान बौद्ध धर्म की ओर झुके। उन्होंने बौद्ध धर्म को राज्य-धर्म घोषित किया और वे अपना सर्वस्व लगाकर उसके प्रचार में लग गये। अशोक देवप्रिय प्रियदर्शी सम्राट अशोक बौद्ध थे।
वे राज्य के साथ 'संघ' का भी संचालन करते थे; परंतु वे थे भारतीय सम्राट। उनमें शुद्ध हिंदू-रक्त और हिंदू उदारता थी। उन्होंने ब्राह्मणों, मन्दिरों और वैदिक धर्म का कोई तिरस्कार नहीं किया। उनकी शिक्षा, उनका हृदय अब भी उनके उन शिलालेखों से स्पष्ट है, जो भारत के विभिन्न स्थानों में पाये जाते हैं। ये शिलालेख अपनी कलाकृति के लिये भी प्रख्यात हैं।
सम्राट अशोक चालीस वर्ष तक सिंहासन पर रहे। इस अवधि में उन्होंने स्वयं विभिन्न तीर्थों में घूमकर, उपदेशक भेजकर, शिलालेख गाड़कर, अनेक प्रकार से लोक में सद्भावना एवं धर्म प्रचार का प्रयत्न किया। तीन वर्ष के अल्पकाल में चौरासी हजार स्तूप का निर्माण कराया|
प्रियदर्शी सम्राट का ही कार्य था। गया के समीप उन्होंने गुफाओं का स्थविर-आवास निर्मित कराया। सैकड़ों विहार, संघाराम उनके स्थापित किये हुए थे। अपने शिलालेखों में उन्होंने माता-पिता की एवं प्राणियों की सेवा, सभी सम्प्रदायों के परस्पर सद्भावना, परलोक का सुधार तथा सत्य, त्याग, तप आदि सार्वभौम धर्मो पर ही पूरा बल दिया है।
सम्राट सचमुच 'देवप्रिय' थे; उन्होंने लोगों को देवपथ में ले जाने का पूरा प्रयत्न किया। वे प्रियदर्शी थे। जनता में जनता से शिक्षा ग्रहण एवं विचार विनिमय की भावना से जाना उन्हीं-जैसे महत्तम का कार्य था।
चार सिंहों के ऊपर स्थापित धर्मचक्र - अशोक के साम्राज्य का यह प्रतीक अब भारत का राष्ट्रीय प्रतीक है। चतुर्दिक्-व्यापी पराक्रम पर धर्म चक्र की स्थापना अशोक ने की, यह सब जानते हैं। उनका राज्य सम्पूर्ण भारत में था और मिस्र, सिंहल, मलय आदि में उनका नाम आदर से लिया जाता था। उन्हीं के पावन उद्योग चीन, जापान तक बौद्ध धर्म का प्रसार कर सका।
तक्षशिला, कौशाम्बी, नालंदा आदि महाविद्यालय उस धर्म-शासन में ही समृद्ध हुए। सम्राट ने स्वयं जीवन के अन्तिम दिन बौद्ध भिक्षु के रूप में राजगृह में किसी बौद्ध मठ में व्यतीत किये। उन्होंने एक आदर्श भारतीय सम्राट का जीवन व्यतीत किया और भारतीय परम्परा के अनुसार ही अंत में वीतराग भिक्षु हो गये। एक चीनी यात्री ने बौद्ध मठ में सम्राट के भिक्षु रूप में एक प्रतिमा देखी थी, ऐसा उसका वर्णन है।
 
 
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