ईश्वर एक है…. आगे चलकर यही परम शिव दो रूपों में विभक्त हो जाता है| पुरुष और प्रकृति … पुरुष उसका अद्रश्य(इनविजिबल) रूप है और प्रकृति द्रश्य(विजिबल) परमात्मा चेतन रूप में पुरुष हैं और जड़ रूप में प्रकृति हमारा रुझान पुरुष की तरफ भी हो सकता है और प्रकृति की तरफ भी| यानी चेतन की तरफ भी और जड़ की तरफ भी| जो चेतन की तरफ रुझान रखता है वो देर सवेर अपने मूल स्वरुप को पाता है| जो जड़ की तरफ झुकता है वो फायनली कुछ भी नहीं पाता| संसार में कुछ पाने के लिए हम मेहनत करते हैं| संसार में कर्म से फल मिलता है तो हम सेल्फ रियलाइजेशन को भी कर्म से ही हासिल करना चाहते हैं|
हम कर्म और पुरुषार्थ में भरोसा रखते हैं लेकिन श्रम, साहस, आत्मविश्वास, लगन, हार्डवर्क, प्रयत्न, कोशिश का फार्मूला Self realisation, आत्म ज्ञान, परमात्म दर्शन, आत्मशक्ति जागरण की साधना में काम नहीं करता| इंसान सोचता है कि वो मेहनत से ईश्वर को खुश कर लेगा| परिश्रम से आत्मा को पा लेगा और पुरुषार्थ से सत्य तक पहुँच जायेगा| ये सोच जड़ तत्व प्रधान यानि भौतिकवादी व्यक्ति की हो सकती है| भौतिक जगत का ये फार्मूला अध्यात्म जगत के लिए नहीं है| व्यक्ति पुरुष और प्रकृति का मेल है इसलिए उसकी साधना का तरीका उसके झुकाव से तय होता है| साधक संजीवनी के अनुसार तीन तरह की साधना होती है|
1- जो व्यक्ति भौतिकवादी है उसकी साधना शरीर आधारित होगी| “बॉडी बेस्ड” इसमें वो अपनी आँख, कान, नाक, त्वचा, जीभ के साथ मन और बुद्धि का सहारा लेगा| इसमें व्यक्ति रूप, रस, गंध, द्रव्य, पूजा, पाठ, हठयोग, साधना के ज़रिये मनोकामना पूर्ती या ईश्वर प्राप्ति की कोशिश कर सकता है| 2- जो व्यक्ति अध्यात्मवादी है उसकी साधना आत्मा पर आधारित होगी| विशुद्ध चेतना पर आधारित इस साधना में व्यक्ति अपने शरीर, मन और बुद्धि को टूल की तरह उपयोग कर सकता है| इस शरीर पर सवार होता हुआ ईश्वर अनुग्रह से सिद्धयोग, महायोग से जागृत कुण्डलिनी इस मार्ग पर खुद आगे बढ़ाती है| स्वतः क्रियाओं, बंध, मुद्रा, सिद्ध प्राणायाम से संस्कार छिन्न करते हुए, आत्मा से पञ्चकोशों को हटाते हुए, वृत्ति-निरोध करते हुए, षट चक्र भेदन, पंच कोष अनावरण के बाद व्यक्ति सत्य-मय कोष तक पहुच जाता है|
3- साधना का एक और तरीका है| जिसमे शरीर का सहारा ही नहीं लेना| जड़ को पूरी तरह इग्नोर कर देना, इन्हें “मैं” न मानते हुए, इनसे डिस्कनेक्ट होकर शरणागत हो जाना| क्रिया, योग, ध्यान सबसे मुक्त होते हुए, मन लगे न लगे खुदको परमात्मा को समर्पित कर देना| हम परमात्मा से सम्बन्ध बनाने के लिए न जाने कितनी कोशिशें करते हैं| लेकिन यही सबसे बड़ी अज्ञानता है| जिससे हम अलग ही नहीं उससे सम्बन्ध कैसे बनाना|
लेकिन ये अज्ञानता कैसे हटे कि अपने ही परमात्म स्वरूप का ज्ञान हो जाए| ये अज्ञान भक्ति से हट सकता है, लेकिन भक्ति में भी मैं अलग और वो अलग होता है| जब तक अनुग्रह नही होता ये भेद खत्म नही होता| साधना का विज्ञान कठिन और उलझाव भरा लगता है| हम जब कुछ क्रिया करते हैं तो उसे अपना मानने हैं जब कि क्रिया कर्म तो शरीर के होते हैं| जब तक शरीर को मैं माना जायेगा, वास्तविक मैं यानि आत्मा का पता नहीं चलेगा| इसलिए शरीर की क्रियाओं को मैं नहीं मनना| मैं अलग हूँ| मैं को अधेंरे काराग्रह से निकलने के लिए शरीर में जो क्रियाएं हो रही हैं वो मेरी नहीं मुझे मुक्त करने के लिए शरीर के कोशों को खोलने की क्रियाएं है|
न तो मैं शरीर हूँ न ही मैं करने वाला हूँ| मुझे मुक्त करने के लिए मेरी सवारी “शरीर”(साधन ) में ईश्वर(साध्य) क्रियाएं कर रहा है या करवा रहा है| ये ईश्वर ऐसा क्यों करता है? क्या ये आत्मा से अलग है? नहीं ये ईश्वर जिसने अपने ही अंश को अपनी ही प्रकृति से जोड़कर संकुचित कर दिया है| अब वो अपने ही अंश आत्मा को उसके वास्तविक स्वरूप का आभास कराने ऐसा कर रहा है| शरीर टेम्परेरी है, इसे अपना वास्तविक, परमानेंट, स्वरूप याद दिलाने के लिए विवेक, बुद्धि का सहारा लिया जा सकता है| बार बार याद दिलाया जा सकता है| बार बार ईश्वर में मन लगाकर वापस अपने मूल की तरफ झुकाया जा सकता है|
साधना के तीनो तरीक़े सिद्धियां देते हैं| लेकिन ये सिद्धियाँ शरीर से जुडी कुछ ख़ास क्षमताएं हैं जो असल में राह की बाधा हैं| एक तरफ का “लालीपॉप”| साधना के तीनो प्रकार एक दुसरे से जुड़े हैं| एक साधारण मनुष्य जो शरीर और संसार से घिरा है सीधे निराकार, पर-ब्रह्म से नही जुड़ सकता| सबसे पहले वो साकार तरीके से जड़ रूप से कदम बढाता है| मन, बुद्धि और हठ योग का सहारा लेता है| चेतना के विकास, अनुग्रह या प्रारब्ध के कारण मनुष्य सीधे दूसरे स्तर की साधना यानि कुण्डलिनी की जाग्रति से साधना को साधन बनाते हुये मूल की तरफ बढ़ सकता है|
तीसरी साधना वो है जिसमे कोई अभ्यास नहीं| ईश्वर कृपा से “जड़” से अनासक्ति हो जाए| शरीर, मन बुद्धि, इन्द्रियों से कोई अटेचमेंट न रहे| मन से संसार छूट जाए तो पल भर में कर्म, ज्ञान, और भक्ति योग घटित हो जाते हैं| तत्काल व्यक्ति को स्वयँ में ईश्वर की प्रत्यक्ष अनुभूति हो जाती है| जो शुरू होती है और खत्म हो जाती है वो जड़ से सम्बन्धित है| समाधि भी शुरू होती है और खत्म हो जाति है| यानि उसका जड़ से कनेक्शन है| जब परमात्मा से 24X7 कनेक्शन हो जाए| परमानेंट योग उसे ही महायोग कहते हैं|
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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