Published By:बजरंग लाल शर्मा

माया का अनादि स्वरूप

माया का अनादि स्वरूप-          

माया को शास्त्रों में प्रकृति कहा गया है। प्रकृति के मूल स्वरूप को निर्विशेष प्रकृति अथवा मूल प्रकृति कहते हैं। माया की यह सुक्ष्मतम अवस्था ही अनादि कहलाती है तथा इसका स्वरूप निराकार होता है। माया के तीनो गुण (सत, रज, तम) इस अवस्था में सोए रहते हैं तथा यह निष्क्रिय रहती है।

माया तथा काल का मिलन-        

सृष्टि की रचना के लिए अक्षर पुरुष के चित्त में माया तथा काल का मिलन कराया जाता है। इस मिलन से माया के तीन गुण, जो सुप्तावस्था में थे क्रियाशील हो जाते हैं। माया त्रिगुणमयी होकर मोहजल में परिवर्तित हो जाती है, जिसे शास्त्रों में नींद (सुंन) कहा गया है। स्वप्न जगत की रचना इसी नींद में होती है। यह भी माया की निराकार परंतु आदि अवस्था है। माया तथा काल के मिलन के पूर्व ये दोनों ही अनादि थे तथा निराकार अवस्था में थे।

संत श्री रामपाल जी ने माया तथा काल के इस मिलन को ही काल पुरुष द्वारा माया के साथ बलात्कार (मैथुन) करना बताया है, उनका यह मत शास्त्र विरुद्ध है । 

मैथुनी सृष्टि कब आरंभ हुई-   

स्वप्न की सृष्टि तीन प्रकार की है - 

1- महद सृष्टि -  सृष्टि को चलाने के लिए सबसे पहले देवगण उत्पन्न किए गए, उन्हें महद सृष्टि कहा गया है। इनके पास शरीर होता है परंतु ये मैथुन क्रिया से उत्पन्न नहीं होते हैं तथा इनको कर्म लागू नहीं होता है।

2- मानसी सृष्टि - ब्रह्मा जी के मन से उत्पन्न प्रत्येक जीवो के प्रथम जोड़ों को मानसी सृष्टि कहा गया है। ये मैथुन क्रिया से उत्पन्न नहीं होते हैं।

3- मैथुनी सृष्टि - 84 लाख योनियों में नर और मादा के रूप में जो प्रथम जोड़ी मन से उत्पन्न हुई तथा उनके पश्चात सभी जीव मैथुनी क्रिया से उत्पन्न हुए। 

काल पुरुष स्वप्न का पहला पुरुष-       

स्वप्न में जितने भी चल एवं विचल सृष्टि की उत्पत्ति हुई है उन सब की माता - दुर्गा (माया) है तथा पिता - काल पुरुष है। काल पुरुष स्वप्न का पहला पुरुष है। काल पुरुष के शरीर को उत्पन्न करने वाली भी मां दुर्गा है तथा उसके पिता अक्षर पुरुष हैं।

"बात बड़ी है काल की, ऐसे कै ब्रह्मांड उपाए।     

काल भी आखर ना रहे, पर पहले सबको खाए।।"

स्वप्न की समस्त सृष्टि की रचना करने वाला प्रथम पुरुष - काल पुरुष है, जो स्वप्न का होता है तथा अपनी समस्त सृष्टि को समेटकर स्वयं भी समाप्त हो जाता है और अक्षर पुरुष के मन में अपने समस्त जीवों के साथ विश्राम करता है।  

स्वप्न के पात्रो की माता मां दुर्गा है-

ब्रह्मा विष्णु महेश को पैदा करने वाला नारायण है तथा ब्रह्मा विष्णु महेश का शरीर तीन गुणों का है और उनकी माता माया है। ब्रह्मा विष्णु महेश की पत्नियां भी माया से उत्पन्न हुई है उनकी माता भी मां दुर्गा है।

"मात-पिता बिन जनमी, आपे  बन्झा  पिंड।       

पुरुष अंग छुयो नहीं, जायो  सब  ब्रह्मांड।।"    

इस माया की ना कोई माता है तथा ना इसका कोई पति है, यह अजन्मी है तथा यह बांझ भी है। यह किसी पुरुष के साथ भी नहीं गई है तथा इसने  ब्रह्मांड के सभी जीवों को उत्पन्न कर दिया।

अक्षर पुरुष काल के अधीन नहीं-        

संत रामपाल जी अक्षर पुरुष (ब्रह्मा) को काल के अधीन मानते हैं। यदि अक्षर नश्वर है तो फिर सृष्टि की रचना परम अक्षर पुरुष करते हैं ऐसा मानना होगा। परम अक्षर तो इच्छा रहित, माया रहित तथा काल रहित हैं फिर रचना कैसे हुई ?

माया, काल तथा ब्रह्म ये सभी अनादि हैं जो रचना के लिए उत्तरदायी हैं। फिर इन तीनों अनादि का स्थान कहां रहेगा ? क्योंकि नश्वर ब्रह्म के साथ अनादि किस प्रकार रह सकता है ? 

परम अक्षर पुरुष सत्य है, प्रकाश स्वरूप है तथा बनने वाला नश्वर जगत असत्य होने के कारण अंधकार स्वरूप है। सत्य (प्रकाश) तथा असत्य (अंधकार) आपस में नहीं मिल सकते हैं फिर यह सृष्टि की रचना कैसे हुई ?

जीव दो प्रकार के हैं-     

संत रामपाल जी जीव को एक ही तरह का मानते हैं। ये स्वप्न के पात्र जीव को भी सत्य मानते हैं। जब कि स्वप्न के पात्र जीव नश्वर होते हैं तथा काल के अंदर होते हैं।  

आप कहते हैं कि काल पुरुष ने परम पुरुष से आत्माएं मांगी तथा ये आत्माएं काल के अंदर आकर जीव बन गई है। परंतु उनका कथन सिद्धांत के विपरीत है क्योंकि अखंड सत्य आत्मा असत्य स्वप्न जगत में नहीं आ सकती हैं क्योंकि वे निर्लिप्त होती हैं।

शास्त्रों में जीव दो प्रकार  के माने गये हैं -

1- काल के अधीन बनने वाले स्वप्न के पात्र दृश्य जीव कहे जाते हैं, जो मात्र कल्पना है तथा नश्वर है।

2- काल के बाहर की आत्मायें जो अखंड है, सत्य है, निर्लिप्त है। ये काल के अधीन नहीं हैं। इनको दृष्टा आत्मायें कहा जाता है। 

सत्य तथा असत्य में अंतर-      

1- कोई भी चीज नष्ट नहीं होती है। उसमे परिवर्तन होता है, फिर वह परिवर्तित होकर अपने मूल में जाती है। ऐसी प्रत्येक वस्तु असत्य होती है।

2- सत्य वह है, जिसमें कोई परिवर्तन नहीं होता हो, जो सदा एक समान रहता हो, जो काल रहित हो, जो खंडित नहीं होता हो, जो किसी के साथ लिप्त नहीं हो।

बजरंग लाल शर्मा 



 

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