Published By:दिनेश मालवीय

सनातन हिन्दू संस्कृति में शिष्टाचार, आज भी उतने ही प्रासंगिक..दिनेश मालवीय

सनातन हिन्दू संस्कृति में शिष्टाचार, आज भी उतने ही प्रासंगिक..दिनेश मालवीय

 

सनातन हिन्दू धर्म-दर्शन में सिर्फ परलोक, अध्यात्म और मोक्ष की ही बात नहीं की गयी है. इसमें लौकिक जीवन को समान रूप से महत्त्व दिया गया है. जीवन के किसी भी पक्ष को नकारा नहीं गया है. किस तरह सुखपूर्वक और सम्मान के साथ जीवनयापन किया जाए, इसके शिष्टाचार निर्धारित किये गये हैं. जीवन के सभी पक्षों में सामंजस्य ही हिन्दू संस्कृति का मूलमंत्र है. इसमें समाज के हर वर्ग और हर उम्र के लोगों के लिए शिष्टाचार के नियम निर्धारित किये गये हैं, जो पूरी तरह व्यावहारिक और जीवन को उसकी परिपूर्णता में जीने में सहायक हैं. इसमें अभिवादन, ज्ञान और ज्ञानियों का सम्मान, उठने-बैठने, वार्तालाप, अतिथि सत्कार, नित्यकर्म, वस्त्र, व्यवहार, आचार आदि से सम्बंधित शिष्टाचार सर्वमान्य रहे हैं. दुर्भाग्य से पश्चिमी सभ्यता के मोहजाल में हम स्वयं तो अपने इन शिष्टाचारों से विमुख हो ही रहे हैं, अपनी संतानों को भी इनसे विमुख कर रहे हैं.

 

अभिवादन


किसी भी देश या समाज में एक-दूसरे से मिलते समय आपस में अभिवादन करने की परम्परा होती है. यही शिष्टाचार का पहला चरण है. अभिवादन दो प्रकार के होते हैं. छोटा अपने से बड़े का और समान रूप से बराबरी वाले एक-दूसरे का अभिवादन करते हैं. हिन्दू जीवन-दर्शन में व्यक्ति को धन-संपदा,पद, ऐश्वर्य के कारण बड़ा नहीं माना गया ही. छोटे-बड़े का निर्णय सबसे अधिक त्याग के आधार पर होता है. जो जितना बड़ा त्यागी होता है, समाज में उसको उतना ही महान माना जाता है. उसके साथ पूरा समाज सबसे अधिक सम्मान के अभिवादन करता है, चाहे उसकी उम्र कितनी भी हो. शुकदेव का सबसे बड़ा उदाहरण मिलता है. उनके पिता महर्षि वेद व्यास परम ज्ञानी थे, लेकिन उन्होंने अपने पुत्र के त्याग के कारण उसे बड़ा मानकार उसे प्रणाम किया. त्याग के बाद, व्यक्ति के ज्ञान या विद्या और आयु का महत्व होता है. जो व्यक्ति ज्ञानी और किसी विद्या में निपुण है. उसका सभी सम्मान करते हैं और उसीके अनुसार उसका अभिवादन करते हैं. आयु में यदि कोई बड़ा हो तो उसके सम्मान में उठकर खड़े हो जाना चाहिए. स्वयं आगे बढ़कर उसे प्रणाम करना चाहिए. अभिवादन की सबसे श्रेष्ठ पद्यति साष्टांग प्रणाम है. देव प्रतिमाओंगुर और संतों को इसी तरह प्रणाम करना चाहिए. इसमें शरीर के आठों अंग भूमि को स्पर्श करते हैं. इसके बाद दूसरा प्रणाम है, घुटनों के बल बैठकर अपने माथे को अपने से बड़े के चरण स्पर्श कराना. दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुका देना इस प्रणाम का सांकेतिक रूप है. पुराने समय में गुरुजन को प्रणाम करते समय अपने गोत्र, पिताका नाम और अपना नाम लिया जाता था.

 

आशीर्वाद

 


जो लोग आपको प्रणाम करते हैं, उन्हें आशीर्वाद देना अनिवार्य है. बिना प्रणाम के आशीर्वाद नहीं दिया जाता. जिसे प्रणाम किया जाता है, उसे समझना चाहिए, कि प्रणाम उसमें स्थित परम चेतना यानी ईश्वर को किया जा रहा है. प्रणाम करने वाले को मर्यादा के अनुसार आशीर्वाद दिया जाना चाहिए. यह आशीर्वाद आत्मा में स्थित सर्वसाक्षी ईश्वर की ओर से दिया जाता है. किसीके प्रणाम करने पर उसे आशीर्वाद नहीं देना, मौन रहना या संकेत से स्वीकृति सूचित करना अशिष्टता है. प्रणाम करने वाले के सिर पर दोनों हाथ रखकर आशीर्वाद देना आशीर्वाद का पूर्ण रूप है. केवल मुख से आशीर्वचन कह देना आशीर्वाद का संक्षिप्त रूप है. समान स्थिति के लोग प्रणाम के उत्तर में प्रणाम करते हैं. जयरामजी या जयश्रीकृष्ण भी इसी श्रेणी में आता है. संत लोग एक-दूसरे को नमो नारायण कहते हैं. गले लगाना प्राचीन समय से ही स्नेह की अभिव्यक्ति के लिए आपस में एक-दूसरे को गले लगाने की प्रथा है. गुरुजन प्रणाम करने वाले प्रियजनों, मित्रों और सम्बन्धियों को गले लगाते हैं. अपरिचित व्यक्ति से गले नहीं मिला जाता. पत्नी द्वारा प्रणाम करने पर दूसरों के सामने उसे गले लगाना शिष्टाचार के विरुद्ध माना गया है. भारतीय शिष्टाचार में चुम्बन का कोई स्थान नहीं है. माता-पिता और संबधी वात्सल्यवश बच्चों को गोद में लेकर उसके मस्तक को सूंघते हैं, जो वात्सल्य की सबसे ऊंची अभिव्यक्ति है.

 


आसन

 


अतिथि, सम्मानित व्यक्ति के आने पर उसे बैठने के लिए यथायोग्य आसन दिया जाता है. पहले तो उसके पांव धोने की भी प्रथा थी. गुरुजन और संतों के पांव आज भी धोये जाते हैं. जब तक कोई बहुत मजबूरी नहीं हो, तब तक आने वाले व्यक्ति से खड़े-खड़े बात नहीं करनी चाहिए. अपने से बड़े के सामने ऊंचे आसन पर नहीं बैठना चाहिए. गुरुजन खड़े हों,तो बैठे या लेटे रहना शिष्टाचार के विरुद्ध है. कोई कितना भी गरीब हो, उसे बैठने के लिए आसन देना शिष्टता है. बातचीत बातचीत या बोलना शिष्टाचार का सबसे महत्वपूर्ण अंग है. इससे व्यक्ति की योग्यता, स्वभाव, शील आदि का परिचय मिलता है. जितना आवश्यक हो उतना बोलना, मीठा बोलना तथा हितकर बोलना ही सबसे उत्कृष्ट शिष्टाचार है. बातचीत में खुद ही नहीं बोलते रहना चाहिए. सामने वाले को भी सुनना चाहिए. लेकिन किसीके बोलते समय एकदम चुप्पी साधना या उसकी अनदेखी करना अशिष्टता है. ऎसी बात नहीं करें, जिससे किसीको उद्वेग हो या वह उत्तेजित हो. बातचीत में स्पष्टता होनी चाहिए. जो जिस भाषा में बात करता हो, उससे उसी भाषा में बात करना चाहिए.

 

अतिथि सत्कार


हमारी संस्कृति में अतिथि सत्कार को बहुत महत्व दिया गया है. इसे शिष्टाचार तक सीमित न रखकर मुख्य धर्म माना गया है. अतिथि को भगवान की तरह माना गया है. यथास्थिति और यथायोग्य रूप से अतिथि का सम्मान किया जाना चाहिए.

 

वस्त्र


वस्त्रों का दूसरे लोगों पर बहुत प्रभाव पड़ता है. वस्र साफ़-सुथरे होने चाहिए, उनका बहुत महँगा या भड़कीला होना ज़रूरी नहीं है. विशेष अवसरों पर उपयुक्त रूप से विशेष वस्त्र पहनना चाहिए. वस्त्र ऐसे होने चाहिए, जो अश्लील नहीं हों. छोटे बच्चों के लिए वस्र आवश्यक नहीं है. नग्न रहकर, खुली हवा, धूप और मिट्टी लगने से उनका उपयुक्त विकास होता है. बच्चों को अनावश्यक कपड़ों में लपेटने से उनको हानि होती है. बच्चों को दो-तीन वर्ष की आयु तक सिर्फ शीत आदि से बचाने के लिए आवश्यक कपड़े पहनाना चाहिए. दूसरों के कपड़े नहीं पहनना चाहिए.

 

सामान्य शिष्टाचार


सबके सामने अकारण बार-बार हँसना, दूसरों के प्रति घृणासूचक अंगचेष्टा करना, यहाँ-वहाँ थूकना, कूड़े को इधर-उधर फेंकना, घर को गंदा रखना आदि शिष्टाचार के विरुद्ध है. खांसी या छींक आने पर या जम्हाई आने पर मुख को कपड़े से ढांकना चाहिए. दूसरों के मुँह के पास मुँह ले जाकर बात नहीं करनी चाहिए. रोगी, वजन ले जाते हुए व्यक्ति, स्त्री, बालक, वृद्धजन, सम्मानित लोगों को मार्ग से हटकर आगे जाने का रास्ता देना चाहिए. मार्ग में मंदिर आदि दिखाई देने पर मस्तक झुकाकर प्रणाम करके ही आगे बढ़ना चाहिए. इन शिष्टाचारों का पालन कर हम समाज में सुखी और सम्मानित जीवन जी सकते हैं.

 

 

 

धर्म जगत

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