 Published By:दिनेश मालवीय
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सदियों बाद भी कबीर की बात वहीं है -दिनेश मालवीय भारत के आध्यात्मिक आकाश में कबीरदास एक चमकते सूरज की तरह हैं. उन्होंने कोई औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं की थी,लेकिन उनका अनुभवयुक्त ज्ञान इतना गहन और व्यापक था कि, हज़ारों लोगों ने उनकी कही हुयी बातों पर पीएचडी की है और आज भी कर रहे हैं. कबीर कोई प्रशिक्षित और परिष्कृत कवि नहीं थे. वे तो बस बोलचाल की भाषा में कुछ पद कह देते थे. उनकी भाषा को सधुक्कड़ी भाषा कहा जाता है. यह बड़ी सटीक और मार्मिक है. कबीर ने अनेक बहुत महत्वपूर्ण पद कहे.
इनमें एक पद ऐसा है,जो उनके समय में जितना प्रासंगिक था,उससे कहीं अधिक आज अर्थपूर्ण है. हमारे भौतिक जीवन में कितना भी बदलाव आ गया हो, लेकिन सामाजिक स्थितियां, सोच और विसंगतियां कमोवेश वैसी ही हैं, जैसी सदियों पहले थीं. इस संदर्भ में कबीर का एक पद याद एक अंश याद आता जिसमें माता-पिता कि उपेक्षा करने वाले लोगों को फटकारते हुए वह कहते हैं कि- “ज़िंदा बाप को रोटी न दहियें, मरने पे पछ्तहियें मुट्ठी भर चावल छत पर रखकर कौवा बाप बनाइये हैं. यानी लोग अपने जीवित माता-पिता को तो भोजन नहीं देते और उनके मरने के बाद श्राद्ध के दिनों में उनके नाम पर घर की छत पर अनेक पकवान बनाकर कौवों को खिलाते हैं. यानी कौवे को बाप बनाते हैं.
आज तो यह बहुत ज्यादा हो रहा है. आज ही एक अखबार में रिपोर्ट छपी है कि, मध्य प्रदेश में पिछले चार महीने में 3329 माता-पिता ने अपने बच्चों के खिलाफ प्रताड़ना की शिकायत दर्ज कराई है, इस मामले में राजधानी भोपाल अव्बल है. यहाँ पिछले चार माह में 923 बुजुर्ग माता-पिता ने अपने बच्चों के खिलाफ प्रताड़ना की शिकायत की है. इसके बाद प्रदेश की आरती राजधानी इंदौर का नंबर आता है. उल्लेखनीय बात यह है कि,भोपाल और इंदौर शिक्षा सहित सभी क्षेत्रों में सबसे आगे हैं. यह सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे और प्रगतिशील कहे जाने वाले लोग रहते हैं.
यह स्थति हमारी शिक्षा-दीक्षा और संस्कारों के संदर्भ में पूरे समाज पर एक तमाचा जैसा है. ये आंकड़े तो उन लोगों के हैं, जिन्होंने औपचारिक रूप से शिकायत की है. इनसे कहीं अधिक संख्या में ऐसा बुजुर्ग हैं, जो चुपचाप सबकुछ सहन कर रहे हैं. उन्हें या तो इस सम्बन्ध में क़ानूनी प्रावधानों का पता नहीं है या फिर वे सबकुछ सहते हुए भी अपने बच्चों के खिलाफ कुछ करना नहीं करते. वे उनका किसी भी तरह से अहित नहीं करना चाहिए. यदि हम पुराने शास्त्रों और संतों की वाणी को पढ़ें और, तो पायेंगे कि, इनमें माता-पिता की सेवा को जीवन का सबसे बड़ा धर्म बताया गया है.
स्त्रियों के लिए सास-ससुर की सेवा को परम धर्म माना गया है. इस बात को बार-बात इतना अधिक दोहराया गया है कि, यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उस समय भी माता-पिता की स्थति में कुछ बहुत ज्यादा अंतर नहीं था. यदि ऐसा नहीं होता, तो इस बात को बार-बार इतना ज़ोर देकर कहने की ज़रुरत ही क्या थी? बार-बार उसी बात को बलपूर्वक दोहराया जाता है, जिसका अभाव होता है.
चोरी मत करो, झूठ मत बोलो, गुरु का आदर करो, धर्म पर चलो, पराई स्त्री को बुरी नज़र से नहीं देखो आदि बातें लगभग सभी धर्मों के ग्रंथों में बहुत अधिक बल दिया गया है. साफ़ है कि, इन चीज़ों का बहुत अभाव रहा है. वर्तमान का उदाहरण ही देख लें कि, साहित्य और मीडिया में “बेटी बचाओ” अभियान ज़ोरशोर से चला रहा है. ऐसा इसलिए करना पडा, क्योंकि कन्या भ्रूणहत्या की घटनाएं असाधारण रूप से बढ़ रही थीं. इसका अर्थ यह है कि पुराने समय में ग्रंथों, संतों और समाज सुधारकों ने जो माता-पिता कि सेवा पर इतना ज़ोर दिया, उसका कारण यही रहा कि उस समय भी लोग अपने बुजुर्गों की उपेक्षा करते थे.
हम आज के समय को शिक्षा और प्रगति का बहुत श्रेष्ठ काल मानते हैं. हमें ज्ञान-विज्ञान, टेक्नोलॉजी, चिकित्सा, इंजीनियरिंग सहित सभी विषयों में विश्व स्तर की शिक्षा मिल रही है. पूरी दुनिया हमारे युवाओं की प्रतिभा का लोहा मान रही है. लेकिन साथ ही सामाजिक मूल्यों और संस्कारों में भी उतनी ही तेजी से क्षरण हो रहा है. यानी, हमारा भौतिक और बौद्धिक विकास हो रहा है, लेकिन भावनात्मक और आध्यात्मिक विकास नहीं हो रहा. हमारा सारा विकास और प्रगति एकांगी हो रही है. पारिवारिक विघटन हो रहा है. सामाजिक तानाबाना बिखर रहा है. संस्कार देने का दायित्व परिवार और धर्म गुरुओं का होता है. लेकिन ऐसा लगता है कि ये दोनों ही इस दायित्व का निर्वाह करने में असफल हो गये हैं.
यानी हम सदियों बाद भी कबीर को नहीं मान पाये. उनकी बात आज भी वही है. भगवान् बुद्ध ने कहा है कि, “अपना दीपक आप बनों”. आज के नौजवानों को अपना रास्ता ख़ुद ही खोजना होगा. आज उनके ऊपर जहाँ राष्ट्र को भौतिक विकास की नयी ऊंचाइयों पर लेजाने का दायित्य है, वहीं यह भी उनका परम कर्तव्य है कि वे परिवार में अपने बुजुर्गों की प्रतिष्ठा, सुख-सुविधा और गरिमा के अनुरूप वातावरण बनाएं. छोटी-मोटी बातें तो चलती रहती हैं, लेकिन इससे परिवार में विघटन नहीं होना चाहिए. वीर अपनी लड़ाई खुद लड़ते हैं: दिनेश मालवीय
 
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