 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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स्वप्निक जीवों के लिए तथा ब्रह्म सृष्टि के लिए वेदों में अलग-अलग शब्द कहे गए हैं, जो (आत्मा) जिससे संबंधित है वह उसी शब्द को ग्रहण कर सकती है। जिसका मूल स्वप्निक है वह उस परब्रह्म से संबंधित अनादि शब्द को नहीं समझ सकता है। अतः वेदों में दो प्रकार की वाणी है एक तो परा वाणी है तथा दूसरी अपरा वाणी है। स्वप्निक जगत के लोगों के लिए अपरा वाणी है।
सुध सबै पाइए शब्दों से, जो होवे मूल सगाई।
क्षिण एक विलम न कीजै, तो लिजे जीव जगाई।।
शास्त्र एवं संतवाणी के अनुसार सृष्टि तीन प्रकार की है। परमधाम की सृष्टि को ब्रह्मा सृष्टि, अक्षरधाम की सृष्टि को ईश्वर सृष्टि तथा स्वप्न की सृष्टि को जीव सृष्टि कहा गया है। इन तीनों प्रकार के सृष्टि में जो ब्रह्म सृष्टि तथा ईश्वरी सृष्टि है, वे दृष्टा है तथा इनके शरीर दिव्य एवं अखण्ड हैं। परा ज्ञान के शब्द तो इनके लिए ही हैं। जीव सृष्टि इन शब्दों को ग्रहण नहीं कर सकती है।
दुख रूपी नश्वर संसार की रचना इन दृष्टा ब्रह्म सृष्टि को दिखाने के लिए की गई है, इसलिए शास्त्रों में उत्तम जीव सृष्टि के ऊपर दृष्टा ब्रह्म सृष्टि के उतरने का विधान है। इन ब्रह्म सृष्टियों को जगाने हेतु ही इस नश्वर स्वप्न के संसार में परा ज्ञान उतरा है। जो जीव सृष्टि इन ब्रह्म सृष्टि के संपर्क में होती हैं, उनको ही पराज्ञान के शब्द समझ में आ सकते हैं।
बहुत पुकार करूं किस खातर, ए सब सपन सरूप।
बेहद बणज जो होएगा साथी, एक लवे होसी टूक टूक।।
जाग्रत अवस्था में इन्द्रियों के द्वारा जो कुछ दिखता एवं सुनता है, वह सब माया है एवं स्वप्नावस्था में जो जाग्रत अवस्था के मन का जो प्रतिभाषिक संसार दिखाई पड़ता है वह भी माया है। सुषुप्ति अवस्था में स्वप्न की सत्ता वाले मन के सुषुप्ति में लय होने पर मूल अज्ञान रूपी माया ही अवशेष रहती है। इसलिए स्थूल सूक्ष्म एवं कारण देहों के रूप में अज्ञान (माया) ही सर्वत्र छाया रहता है।
इस मोह रूपी समुद्र को बनाने वाली सुमंगला शक्ति है। इसे अज्ञान अथवा माया कहा गया है। इसकी दो शक्तियां हैं - पहली आवरण शक्ति है तथा दूसरी विक्षेपा शक्ति है। आवरण शक्ति अक्षर ब्रह्म के चित्त को नींद के आवरण से ढक देती है।
जिस प्रकार मेघ का छोटा टुकड़ा सहस्त्र किरणों वाले सूर्य को अच्छादित कर लेता है, उसी प्रकार अज्ञान रूपी माया अखंड अक्षर चित्त को नींद के आवरण के द्वारा ढक देती है। इसके पश्चात माया की विक्षेपा शक्ति के द्वारा भ्रम अथवा प्रपंच का विचित्र स्वप्न का संसार अक्षर ब्रह्म के चित्त में खड़ा कर दिया जाता है।
जिस प्रकार शयन करता हुआ कोई मनुष्य स्वप्न में राजा हो जाता है तथा वह राजा के देह से ही संपूर्ण प्रजा पर राज्य करता है। उसी प्रकार अक्षर ब्रह्म अपने स्वप्न में नारायण के देह को धारण करते हैं तथा उस देह से इस दृश्य स्वरूप ब्रह्मांड के जीवों को दृष्टा बनकर उनके संपूर्ण कार्यों को देखते हैं। इस प्रकार ब्रह्मांड के सभी जीव नारायण की नींद में उनके स्वप्न में बने हैं तथा अपने कर्मों के अनुसार अपने तीनो शरीरों (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) में भ्रमण करते रहते हैं।
इस प्रकार स्वप्ननिक विश्व का आधार या सत्ता अक्षर ब्रह्म का चित्त ही है तथा उससे पृथक अन्य कुछ भी नहीं है। स्वप्न के जीवों को यह संसार सत्य लगता है। वे कभी भी नींद के बाहर नहीं जा सकते हैं तथा अक्षर ब्रह्म को नहीं जान सकते हैं।
ख्वाबी दम सब नींद लों, सब नींदे के आधार।
जो कदी आगे बल करे, गले नींद में निराकार।।
पूर्णब्रह्म परमात्मा के इस परा ज्ञान को नास्तिकों, धूर्तों, तार्किकों, वेदनिन्दकों एवं अविश्वासियों को, कभी नहीं कहना चाहिए। शुद्ध एवं निर्मल अंतःकरण वालों को भी परीक्षा लेकर यह ज्ञान देना चाहिए। जो इस ज्ञान को अयोग्य पुरुषों को देता है तो वह व्यक्ति पाप का भागी बनता है।
बजरंग लाल शर्मा
 
 
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