Published By:धर्म पुराण डेस्क

जीव मात्र का स्वरूप: आत्मा

आत्मा का स्वरूप अद्वितीय है, और यह सत, चित, और आनंद की सर्वभूत सत्ता है। यह सत्ता नित्य और अपरिवर्तनीय होती है, और यह अपरिस्पर्शनीय है। लेकिन जब मनुष्य अपनी आत्मा को भूल जाता है, तो उसमें देह का आत्मा से संबंध उत्पन्न होता है, और वह अपने को केवल शरीर मान लेता है. 

इस संबंध को तीन प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है: 1) मैं शरीर हूं, 2) शरीर मेरा है, और 3) शरीर मेरे लिए है.

हमारे सामने दो ही तत्व हैं: जड़ (नाशवान्) और चेतन (अविनाशी). इन दोनों के बीच एक अंतर होता है. गीता में इसे शरीर और शरीरी, क्षर और अक्षर, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ कहा गया है. संतों ने इसे 'नहीं' और 'है' कहकर व्यक्त किया है. 

हमारा स्वरूप शरीरी है, चेतन है, अविनाशी है, अक्षर है, क्षेत्रज्ञ है, और 'है'-रूप है. जो हमारा स्वरूप नहीं है, वह शरीर है, जड़ है, नाशवान है, क्षर है, क्षेत्र है, और 'नहीं'-रूप है. जो 'है'- रूप है, वह नित्य प्राप्त है और जो 'नहीं' रूप है, वह आत्मा से मिलता है और फिर उससे अलग हो जाता है।

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