 Published By:दिनेश मालवीय
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हमारे ऋषियों ने धर्म को सुख का मूल माना है.हालाकि अपने तात्विक स्वरूप में धर्म का मूलभूत स्वरूप और सिद्धांत लगभग सार्वभौम हैं, लेकिन विभिन्न सन्दर्भों और परिस्थितयों में धर्म के दो स्वरूप होते हैं- सामान्य धर्म और विशेष धर्म.भारत में धर्म शब्द का प्रयोग कर्तव्य के रूप में अधिक किया गया है. इस अर्थ में धर्म के दो प्रमुख स्वरूप बताये गये हैं- सामान्य धर्म और विशेष धर्म.
1. सामान्य धर्म- धर्म के मूल तत्व सम्पूर्ण मानवजाति के लिए समान रूप से एक ही हैं.इसलिए इनको सामान्य धर्म कहा जाता है.लेकिन मूलभूत रूप से एक होने के बावजूद इनके बीच व्यवहार में अंतर है. सामान्य धर्म के धैर्य, क्षमा, दम, आस्तेय,शौच,इन्द्रिय-निग्रह, सत्य,अक्रोध आदि जो उच्च आदर्श हैं, उन्हें आम लोगों द्वारा बहुत कोशिश के बाद भी पूरी तरह अमल में नहीं लाये जा सकते. ज़िन्दगी की कठोर राह पर कई बार ऐसे हालात बन जाते हैं, कि सामान्य धर्म का पालन नहीं किया जा सकता. यहाँ तक कि विशेष परिस्थतियों में राम जैसे अवतार और धर्मराज युधिष्ठिर को भी क्रमशः वाली वध के लिए छल का और भीष्म के वध के लिए असत्य का सहारा लेना पड़ा था. इसलिए जन सामान्य के लिए कहा गया है, कि यदि वे सामान्य धर्म का आंशिक पालन भी कर लें तो उनका कल्याण हो सकता है.
2. विशेष धर्म- विशेष धर्म लोगों के व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन से सम्बंधित संस्कारों, व्यवहारों और रूढ़ियों से सम्बंधित हैं. धर्म का यह ऐसा स्वरूप है, जो अलग-अलग परिस्थितियों में प्रासंगिक होता है. जैसे आत्म धर्म, कुल धर्म,युग धर्म, राज धर्म और आपद धर्म. सामान्य धर्म के सिद्धांत हर समय, हर काल और परिस्थति में अपरिवर्तनशील होते हैं, जबकि विशेष धर्म में देश,काल और परिस्थति के अनुरूप इनमें समय-समय पर बदलाव होता रहता है.
आत्म धर्म
इसे आप व्यक्तिगत धर्म भी कह सकते हैं. इसका मकसद अपनी चेतना का उत्थान और कल्याण होता है. इसमें मनुष्य ऐसे काम करता है, जिनसे उसकी भौतिक उन्नति तो होती ही है, साथ में मोक्ष का रास्ता भी खुलता है. वह इस बात का ध्यान रखता है, कि उसके द्वारा कोई भी काम ऐसा नहीं हो, जिससे उसका परलोक बिगड़ जाए या उसे अधोगति प्राप्त हो. संसार में विपत्ति, बीमारी, दुर्घटना, प्राकृतिक प्रकोप आदि से अपनी रक्षा करना आत्म धर्म कि श्रेणी में आता है.
कुल धर्म
व्यक्ति जिस वंश में जन्म लेता है, वही उसका कुल होता है. इसमें परिवार के वर्तमान लोग ही नहीं, पूर्वज भी शामिल होते हैं. कुल की कुछ मर्यादाएं होती हैं, संस्कार होते हैं, और कुछ रीति-रिवाज भी होते हैं. इनका पालन और संरक्षण करना ही कुल धर्म कहलाता है. आम तौर कहा जाता है, कि ऐसा कोई काम मत करो, कि बाप-दादा के नाम को बट्टा लगे. इसीलिए हमारे देश में किसी भी प्रकार का सम्बन्ध बनाने से पहले या किसीको कोई बड़ी जिम्मेदारी सौंपने से पहले उसके कुल की पड़ताल करने की परंपरा रही है. शादी-विवाह में भी कुल के इतिहास पर बहुत ध्यान दिया जाता रहा है. इस बातों पर आज बहुत ध्यान नहीं दिया जाता, लेकिन इनका अपना महत्त्व सदा बना रहेगा.
युग धर्म
समय परिवर्तनशील है. परिस्थतियाँ लगातार बदलती रहती हैं. बदलती परिस्थतियों के अनुसार युग धर्म अर्थात कर्तव्य और कर्म भी बदल जाते हैं.उदाहरण के लिए जब भारत ब्रिटिश शासन का गुलाम बन गया, तब देश को आजाद कराना ही भारतवासियों का युग धर्म हो गया. इसमें सभी लोगों के जाति,धर्म,वर्ग, संप्रदाय सहित सभी भेदभाव भुलाकर देश की आज़ादी कि लिए मिलकर संघर्ष किया. महात्मा गाँधी सहित सभी राष्ट्रीय नेताओं के साथ-साथ आम जनता ने भी इस युग धर्म का पालन किया. आज समाज से जातिवाद, महिला उत्पीडन, भ्रष्टाचार उन्मूलन, संस्कारों का क्षरण रोकना, तथा अनेक प्रकार की कुरीतियों को समाप्त करना ही युग धर्म है.
राज धर्म
देश के संविधान के अंतर्गत बनाए गये कानूनों का पालन करना और करवाना ही राज धर्म है. इनका पालन करना हरेक व्यक्ति का फर्ज है. हमारे देश में कहा गया है कि ‘सर्व धर्म: राजधर्मे प्रतिष्ठा:’ यानी सभी धर्म राज धर्म में सिमट जाते हैं. यह सभी विशेष धर्मों से ऊपर होता है. क़ानून से ऊपर कोई नहीं होता. राज धर्म का पूरी तरह पालन हो, इसके लिए नागरिकों में इसके प्रति पूरी जागरूकता होनी चाहिए. ब्रिटेन हमारे सामने सबसे अच्छी मिसाल है. वहाँ कोई विशिष्ट संविधान नहीं है, लेकिन परम्पराएँ और परिपाटियाँ हैं, जिनकी रक्षा की जाती है. सभी क़ानून-कायदे इन्हीं के अनुसार बनाए जाते हैं. वहाँ के नागरिक इनका अक्षरश: पालन करते हैं.
आपद धर्म
आदमी को कई बार ऐसे घोर हालात का सामना करना पड़ता है, कि उसे अपनी और अपनी धन-सम्पत्ति तथा परिवार की रक्षा के लिए ऐसे काम भी करना पड़ता है, जो धर्म के विरुद्ध माने जाते हैं. कभी झूठ बोलना पड़ता है, तो कभी हिंसा का सहारा लेना पड़ता है. आपत्ति के समय सामान्य धर्म के पालन में शिथिलता दी गयी है. शास्त्र में कहा गया है कि ‘ आपत्तिकाले मर्यादा नास्ति’. दो बुराइयाँ सामने हों तो, कम बुराई को चुना जाता है. महाभारत में एक कथा के अनुसार एक बार बारह वर्ष तक भयंकर अकाल पड़ा. विश्वामित्र को बहुत दिन तक भोजन नहीं मिला. तब उन्होंने जीवन की रक्षा के लिया एक चांडाल के घर से कुत्ते का मांस चुराकर अपनी भूख मिटाई. चांडाल को जब यह पता चला, तो उसने विश्वामित्र से कहा कि द्विजों के लिए कुछ पंचनख पशुओं का मांस खाना निषेध है. चोरी भी महापाप है. इसपर विश्वामित्र ने उत्तर दिया कि ‘जीवितं मरणात श्रेयो जीवन धर्मवाप्नुयात’ अर्थात धर्म की दृष्टि से मरने की अपेक्षा जीना बेहतर है. सतयुग में राजा हरिश्चंद्र ने डोम के यहाँ नौकरी की थी. पांडव भी अज्ञातवास में विराट के नौकर बने. इस तरह देश-काल-परिस्थिति के अनुसार व्यक्ति के कर्तव्य या धर्म का निर्धारण होता है. कोई भी नीति या सिद्धांत हमेशा के लिए नहीं होता. भारत में धर्म यदि आज भी पूरी जीवन्तता के साठ अस्तित्व में है, तो उसका कारण यही है, कि इसमें जीवन की सभी परिस्थितियों और मनुष्य के स्वभाव को गहराई से समझकर विधि-निषेध निर्धारित किये गए हैं. ऐसा नहीं है, कि एक बार अगर कोई नियम निर्धारित हो गया, तो वह सदा के लिए रहेगा. सामान्य धर्म अवश्य नहीं बदलते, लेकिन विशेष धर्म आवश्यकता अनुसार बदलते रहते हैं.
 
                                मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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