Published By:दिनेश मालवीय

भक्ति के चार स्वरूप- हनुमान जी सभी में आदर्श….दिनेश मालवीय

भक्ति के चार स्वरूप- हनुमान जी सभी में आदर्श….दिनेश मालवीय

हमारे शास्त्रों में ईश्वर की भक्ति के चार स्वरूप बताये गये हैं. यानी भक्त अपने स्वभाव के अनुसार अपने इष्ट की भक्ति चार तरह से कर सकता है. वह स्वयं को दास और भगवान को अपना स्वामी मानकर जब भक्ति करता है तो इसे दास्य भाव की भक्ति कहते हैं. अधिकतर संत इसी भाव से भक्ति करते हैं. स्वामी रामसुखदासजी और अन्य संतों ने इस विषय पर बहुत सुंदर लेखन किया है.

भक्त जो भगवान को अपना मित्र या सखा मानकर उनकी भक्ति करता है तो उसे सख्य भक्ति कहते हैं. भक्त शिरोमणि सूरदास इसी भाव से भक्ति करते थे. भक्त जब वात्सल्य भाव से भगवान की भक्ति करता है तो उसे वात्सल्य भक्ति कहते हैं. इसमें वह अपने प्रभु को बाल रूप में मानकर उनकी सेवा करता है.चौथी भक्ति माधुर्य भक्ति कहलाती है. इसे कांता-रति भी कहते हैं.

श्री हनुमान जी इन चारों प्रकार की भक्ति में आदर्श रूप में सामने आते हैं. वे भक्तों के सामने सुंदर आदर्श प्रस्तुत करते हैं.

पहले हम हनुमान जी के दास्य भाव से भक्ति के स्वरूप को देखते हैं. वैष्णव आचार्य इसे भक्ति की पहली सीढ़ी मानते हैं. इसमें भक्त का अपना कुछ नहीं रह जाता. उसका अपना कुछ नहीं रहता और न उसमें सेवा करने का अभिमान ही होता है. स्वामी को अपनी बात उसे कहने की ज़रुरत तक नहीं पड़ती. वह उनके भावों को समझकर ही उनका इष्ट कार्य पूरा कर देता है. स्वामी के मन में संकल्प उदय होते ही वह आवश्यक सेवा उपलब्ध करा देता है.

भगवान श्री राम द्वारा लंका में प्रवेश की इच्छा का पता चलते ही हनुमान जी ने पहले ही उनके ठहरने और उनकी सेना के लिए शिविर की व्यवस्था कर दी. सीताजी की खोज के लिये जाते समय उन्हें केवल सीता जी का कुशल समाचार लाने को कहा गया था, लेकिन अशोक वाटिका में जब वह त्रिजटा का सपना सुनते हैं कि सपने में बानर ने लंका को जलाकर राक्षसों की सेना का संहार कर दिया, तो वह इसे भगवान का संकेत समझ कर तत्काल लंका दहन कर देते हैं.

समुद्र को लांघ जाना, लंका का दहन, लक्ष्मण की प्राण रक्षा के लिए संजीवनी लाना, दानवों का दमन आदि उनकी सेवा के उत्कृष्ट उदाहरण हैं. वह सेवा में इतने रत हैं कि रामजी के जंभाई लेने पर चुटकी बजाने जैसी छोटी सेवा से भी नहीं चूकते. उनके मन के छोटे से छोटे भाव को समझ कर तुरंत उसे पूरा कर देते हैं.

साखी भाव दास्य भाव के बाद साख्य भाव की भक्ति का क्रम आता है. इसमें भगवान के साथ मित्रवत व्यवहार रहता है. सूरदास का प्रसिद्ध दोहा हमने पढ़ा है कि-

बांह छुड़ाए जात हो निबल जान के मोई 

हृदय से जब जाओगे मरद गनोंगो तोई.

यही अपने इष्ट के साथ मित्र भाव है. वाल्मीकि रामायण में हनुमान जी के सखा भाव का बहुत सुंदर वर्णन मिलता है. श्री राम वानरों को संबोधित करते हुए उनसे पूछते हैं कि क्या विभीषण को अपनाना चाहिए या नहीं'. सुग्रीव, अंगद, जाम्बवान आदि ने इसके विरुद्ध राय व्यक्त की. लेकिन हनुमान जी ने कहा-' महाराज श्री राम! मैं जो कुछ निवेदन करूंगा, वह वाद-विवाद या तर्क, स्पर्धा, अधिक बुद्धिमत्ता के अभिमान या किसी प्रकार की कामना से नहीं कहूंगा. मैं तो कार्य की गंभीरता को ध्यान में रखकर यही सलाह दूंगा कि विभीषण को अपना लेना चाहिए.

वात्सल्य रूप को साख्य भाव से भी ऊंचा माना गया है. इसमें भक्त भगवान की सेवा वैसे ही करता है जैसे माता-पिता अपने शिशु की. वे अपने बच्चे को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने देते. हम देखते हैं कि भगवान जब पैदल चलते हैं तो हनुमान जी यह सहन नहीं कर पाते. वह उन्हें अपने कंधे पर वैसे ही उठा कर चलते हैं, जैसे पिता अपने बच्चे को लेकर चलता है. 

वह उन्हें सुग्रीव के पास भी अपने कंधे पर बैठाकर ही ले जाते हैं. इसे कांता-रति भी कहते हैं. इसमें भक्त स्वयं को पति या प्रिया और अपने इष्ट को अपना पति या प्रेमी मानकर उनकी भक्ति करता है. इस भक्ति का स्वरूप सूफी परंपरा में अधिक देखने को मिलता है, जिसमें भक्त खुदा को अपना महबूब मानकर उनकी भक्ति करता है.

भक्त का पूरा ध्यान सिर्फ अपने स्वामी की तरफ ही रहता है. जिस प्रकार पतिव्रता पत्नी के जीवन का हर क्षण अपने पति की सुख-सुविधा जुटाने में लगा रहता है, उसी प्रकार भक्त भी अपने प्रभु की सेवा में अपना हर पल अर्पित कर देता है.

जिस प्रकार पति अपने पति की प्रसन्नता के लिए कुछ भी करने को तत्पर रहती है, उसी प्रकार हनुमान जी अपने स्वामी को प्रसन्न करने के लिए कुछ भी कर सकते हैं. एक बड़ी प्रीतिकर कथा आती है कि एक बार सीताजी अपनी मांग में सिन्दूर भर रहीं थीं. यह देखकर हनुमान जी ने पूछा कि माता आप ऐसा क्यों कर रहीं हैं. सीता जी ने उपहास में कह दिया कि इससे प्रभु प्रसन्न होते हैं. फिर क्या था, हनुमानजी ने अपने पूरे शरीर में सिंदूर लपेट लिया. इसीलिए भक्तगण हनुमानजी की प्रतिमा पर सिन्दूर चढ़ाकर उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं.

इसके दो स्वरूप होते हैं- संयोग और वियोग. हनुमान जी जब भगवान के साथ संयोग में रहते हैं, तब उनकी निरंतर सेवा करते रहते हैं. वियोग काल में वह उनके चरित्र और गुणों को सुनने और कहने में अपार रस लेते हैं. उन्होंने भगवान के साथ ऐसा सम्बन्ध जोड़ लिया है कि जहाँ भी श्रीरामकथा होती है, वह वहाँ किसी न किसी रूप में उपस्थित रहते हैं.

जब श्रीराम अपने धाम को पधारने लगे, तब हनुमान जी ने वरदान माँगा की उन्हें पृथ्वी लोक में ही निवास करने की आज्ञा दी जाए. जब तक आपकी कथा पृथ्वी पर होती रहेगी तब तक मैं यहाँ रहकर परम प्रेम से इसका श्रवण करता रहूँगा.

इस प्रकार हम देखते हैं कि भक्ति-मार्ग में हनुमान जी एक आदर्श उदाहरण हैं.

दिनेश मालवीय


 

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