Published By:दिनेश मालवीय

जीवन के चार पुरुषार्थ, परिपूर्ण जीवन की सटीक व्यवस्था

अक्सर ऐसा होता है, कि जो शब्द बहुत ज़्यादा चलन में आ जाते हैं, उनमें एक यांत्रिकता आ जाती है. हम उन्हें बोले चले जाते हैं, लेकिन उन्हें जीवन में गहराई से आत्मसात करने का भाव विकसित नहीं हो पाता.

 सनातन धर्म को मानने वाले हर व्यक्ति ने जीवन के चार पुरुषार्थों के बारे में अवश्य ही सुना होगा. इस विषय पर महात्मा और प्रवचन करने वाले लोग अक्सर विस्तार से चर्चा करते हैं. इस विषय पर बहुत साहित्य भी उपलब्ध है. लेकिन इन लक्ष्यों के सम्बंध में सामान्य रूप से लोग बहुत अधिक नहीं जानते. यह जीवन को उसकी परिपूर्णता में जीते हुए देवत्व यानी पूर्णत्व की ओर बढ़ने की बहुत सुचिन्तित व्यवस्था है.

सनातन धर्म के ऋषियों ने जीवन के चार पुरुषार्थ निर्धारित किये हैं. इन्हें साधारण भाषा में जीवन के लक्ष्य कहा जा सकता है. इस व्यवस्था में जीवन का नकार नहीं, बल्कि स्वीकार है. इसमें जीवन का अपमान नहीं,बल्कि सम्मान है. जीवन अभिशाप नहीं वरदान है.

ये चार पुरुषार्थ हैं- धर्म, अर्थ , काम और मोक्ष. जीवन के ये चार लक्ष्य हैं, जिन्हें प्राप्त करते हुए मनुष्य के परम लक्ष्य, महास्तित्व में लीन होने के चरम लक्ष्य को प्राप्त करता है. आइये, इनमें से हर पुरुषार्थ के बारे में कुछ जानते हैं.

चारों पुरुषार्थों में सबसे पहले धर्म को रखा गया है. यह शेष तीनों पुरुषार्थों की नींव है. इस संदर्भ में धर्म का अर्थ पूजा-पाठ या किसी पंथ-सम्प्रदाय की प्रक्रियाओं से नहीं है. हालाकि, धर्म की भूमि में प्रवेश करने में ये कुछ हद तक सहायक हैं. धर्म का बहुत व्यापक अर्थ लिया गया है. धर्म का अर्थ है, ऎसी जीवनचर्या या जीवनशैली, जिससे हमारा आर्थिक, मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक विकास होता हो. हमारे भीतर यह विवेक विकसित हो जाए, कि जीवन में क्या सही और गलत है, क्या नित्य और नश्वर है और किस कार्य को करने से हमारा व्यक्तिगत ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण समाज और राष्ट्र का उत्थान होगा.

इस प्रकार का विवेक जाग्रत होने पर ही दूसरे पुरुषार्थ यानी “अर्थ” का सही उपयोग संभव है. सनातन जीवन-दर्शन में अर्थ अर्थात धन-सम्पत्ति या ऐश्वर्य की अवहेलना नहीं की गयी है. इसके विपरीत गरीबी और विपन्नता को पाप माना गया है. यह उपदेश दिया गया है, कि मनुष्य को अधिक से अधिक अर्थोपार्जन करना चाहिए. लेकिन इसमें एक ही शर्त है, कि वह धर्मयुक्त हो. यहाँ धर्म की समझ काम आती  है. जो व्यक्ति धर्म को ठीक से समझ लेता है, वह हमेशा इस बात के प्रति सजग रहता है, कि मेरे द्वारा अर्जित किया जाने वाला धन अनैतिक रास्ते से तो नहीं आ रहा. इससे मेरी आत्मा का हनन तो नहीं हो रहा.

धन तो कोई भी कमा सकता है. वैश्या, चोर, डाकू आदि सभी ख़ूब धन कमाते हैं, लेकिन वे ऐसा अपनी आत्मा का हनन करके करते हैं. ऐसे लोगों को आत्महंता कहा गया है. इस तरह का धन जीवन में कभी सच्चा सुख नहीं ला सकता. धर्मयुक्त धन से ही व्यक्ति समृद्ध होता है. हर धनवान समृद्ध नहीं होता. जिसके पास धन के साथ सात्विक बुद्धि और परोपकार का भाव होता है, उसे समृद्ध कहा जाता है.

इसके बाद तीसरा पुरुषार्थ है “काम”. यहाँ “काम” का अर्थ सिर्फ यौनसुख नहीं है. इसका व्यापक अर्थ है, जीवन में ऐसे सभी प्रकार के सुखों को भोगना, जो धर्मयुक्त हों. परिवार और बुजुर्गों के प्रति जिम्मेदारी का निर्वाह. समाज और राष्ट्र के प्रति अपने दायित्वों को पूरा करना, अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए संपत्ति अर्जित करना, अतिथि सत्कार, साधु सत्कार, धार्मिक अनुष्ठान करना और उनमें सहयोग करना आदि सभी बातें “काम” की अवधारणा में शामिल हैं. इस पुरुषार्थ का पालन इस तरह किया जाए, कि इच्छाएं और वासनाएं शेष रहकर विकृत रूप धारण नहीं कर सकें. सभी सुखों को सम्यक रूप से भोगा जाए.  

अधिकतर लोग अच्छे-बुरे जैसे भी तरीके से धन तो अर्जित कर लेते हैं और उसे ख़ूब खर्च भी करते हैं, लेकिन उनके पास यह विवेक नहीं होता, कि धन का उपयोग कहाँ करना है. वे बस इसे उड़ाते रहते हैं. इसे धार्मिक कार्यों पर खर्च भी करते हैं, तो उन्हें इसका अभिमान बना रहता है. ऎसी स्थिति में यह माना जाएगा,कि उस व्यक्ति ने “काम” शब्द को ठीक से समझा ही नहीं है.

सनातन धर्म में जीवन का परम लक्ष्य या पुरुषार्थ “मोक्ष” माना गया है. लेकिन यह लक्ष्य तभी प्राप्त होता है, जब व्यक्ति पिछले तीनों पुरुषार्थों का ठीक से निर्वाह कर ले. ऐसा नहीं हो सकता, कि अनैतिक और दुराचारी जीवन जीता रहे और उसे मोक्ष भी मिल जाये. मोक्ष का आखिर अर्थ क्या है? तात्विक रूप से मोक्ष का मतलब है, उस परम सत्ता में विलीन हो जाना, जिससे हम उत्पन्न हुये हैं. अपने मन को विकारों से मुक्त करना. मोक्ष प्राप्त करने के बाद व्यक्ति का फिर से किसी भी योनि में जन्म नहीं होता. यह अलग बात है, कि संसार के कल्याण के लिए परम सत्ता उसे किसी कार्य विशेष के लिए भेज दे. इन्हीं लोगों को परमहंस संत, पैगम्बर, सद्गुरु, महात्मा आदि नामों से बुलाया जाता है. ये लोग अपना निर्धारित कार्य करके वापस परम तत्व में विलीन हो जाते हैं.

इस प्रकार हम देखते हैं, कि सनातन हिन्दू  धर्म में जीवन को एक वरदान मानकर उसे उसकी परिपूर्णता में जीने का न केवल उपदेश दिया गया है, बल्कि उसके लिए मार्ग भी निर्धारित किये गये हैं.

चारों पुरुषार्थ एक-दूसरे से अलग नहीं हैं. वे आपस में जुड़े हुए हैं. एक पुरुषार्थ को पूरी तरह प्राप्त करके ही अगले लक्ष्य की ओर गति होती है. इसमें ग़फलत होने पर पूरा जीवन गड्डमगड्ड होकर क्लेशमय हो जाता है. जीवन में स्थायी सुख नहीं मिलता. सुख के नाम पर जो मिलता है, वह दु:ख का ही कारण सिद्ध होता है.

आज चारों तरफ फैली अशांति और अराजकता का मुख्य कारण धर्म के विषय को समझ पाने में असफलता ही है. सिर्फ पूजा-पाठ, अनुष्ठानों आदि को ही धर्म मान लिया गया हैं. ये धर्म कि ओर ले जाने में  सहायक अवश्य हैं, लेकिन अपने आप में धर्म नहीं हैं. धर्म एक आंतरिक अनुशासन है.

    

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