मनुष्य में अन्य जीवों की अपेक्षा ईश्वरीय अंश अधिक होने के कारण वह अनन्त शक्तियों का भण्डार हो गया है। अभी तक के शोधों के अनुसार इतना वैज्ञानिक विकास करने में मनुष्य अपनी सम्पूर्ण बौद्धिक प्रतिभा का मात्र पाँच प्रतिशत अंश का ही उपयोग कर पाया है। उसकी शेष 95 प्रतिशत प्रतिभा शक्ति सुप्त (सोई हुई) अवस्था में है। जब मनुष्य 10, 20, 50 या 80 प्रतिशत प्रतिभा का उपयोग कर पायेगा तो क्या वह स्वयं दिव्य नहीं हो जायेगा?
अपनी इसी सुप्त प्रतिभा को अधिक से अधिक अंशों में जगाने के लिए ऋषियों ने कुण्डलिनी जागरण की विद्या का आविष्कार अपनी प्रारम्भिक अवस्था से ही कर लिया था। इसीलिए इन ऋषियों में देवताओं से भी अधिक दिव्यता थी और इसी दिव्यता के कारण ये शाप या वरदान देने में समर्थ थे।
किसी सिद्ध महापुरुष की कृपा और शिव भक्ति से जिन लोगों की कुण्डलिनी सांसारिक जीवन हेतु काम चलाऊ रूप से जिस स्तर तक जाग्रत हो जाती है, उसे उसी स्तर की सफलता मिलती है। यही कारण है कि व्यक्ति की सफलता का स्तर भिन्न-भिन्न होता है: किंतु सफलता मिलने पर कुछ लोग अपनी स्वार्थ सिद्धि में लगे रहकर अहंकारी हो जाते हैं। ऐसे लोगों की कुण्डलिनी का यह जागरण मूलाधार चक्र के प्रारम्भिक स्तर तक ही सीमित रह जाता है।
कुछ लोग सफल होने के बाद भी इन्सानियत से परिपूर्ण होकर ईश्वर का ध्यान करते हैं, उनके मूलाधार चक्र को कुण्डलिनी पूर्णतया जाग्रत कर देती है। ऐसे लोग सांसारिक भौतिक तथा आध्यात्मिक सफलता के उच्चतम शिखर तक पहुँच जाते हैं।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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