भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को गणेश चतुर्थी कहते है। प्रातःकाल स्नानादि नित्यकर्म करके पूजन के समय प्रथम सोने को या तांबे को या मिट्टी की अथवा गौ के गोबर की गणेश प्रतिमा बना ले। फिर कोरे घट मे जल भरकर उसके मुख पर नवीन वस्त्र बिछाकर उस पर गणेशजी की प्रतिमा स्थापित करे। तब षोडशोपचार से विधिवत पूजन करें। पूजन के पूर्व गणेश जी का ध्यान करना चाहिये ।
तत्पश्चात् आवाहन, आसन, पाद्य, अघं, आचमन, स्नान, वस्त्र, गन्ध और पुष्प आदि से पूजन करके पुनः अङ्ग-पूजा करनी चाहिये। अंग-पूजा में पाद, जंघा, उरु, कटि, नाभि, उदर, स्तन, हृदय, कण्ठ, स्कन्ध, हाथ, मुख, ललाट, शिर और सर्वाङ्गे इत्यादि अंगों का पूजन करें तथा धूप, दीप, नैवेद्य, आचमन, ताम्बूल और दक्षिणा के पश्चात् आरती करे और नमस्कार करे।
इस पूजा में 21 लड्डू भी रखना चाहिये। उनमें से पाँच तो गणेश प्रतिमा के आगे रखे। पाँच ब्राह्मणों को देने के लिए रखे। जो ब्राह्मणों को देने के है, दक्षिणा सहित श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दे। यह क्रिया चतुर्थी के मध्याह्न में करने की है। रात्रि में जब चन्द्रमा का उदय हो जाए, तब चन्द्रमा का यथा विधि पूजन करके अर्घ प्रदान करे।
एक समय महादेव जी स्नान करने के लिये कैलाश पर्वत से भोगावती पुरी को पधारे। पीछे से अभ्यंग स्नान करते हुए पार्वती ने अपने शरीर के मल से एक पुतला बनाया और जल में डालकर उसको सजीव किया। उस पुत्र को पार्वती ने आज्ञा दी - "बेटा ! तुम मुद्गर को लेकर द्वार पर बैठ जाओ। यहाँ भीतर कोई भी पुरुष न आने आवे ।”
जब भोगावती से स्नान करके श्री शिवजी वापस आये और पार्वती के पास भीतर जाने लगे, तो उक्त बालक ने उनको रोक दिया। इससे कुपित होकर महादेव जी ने बालक का सिर काट डाला और आप भीतर चले गये।
पार्वती ने महादेव को कुपित देखकर विचार किया कि कदाचित् भोजन में विलम्ब हो जाने के कारण ही शंकर को क्रोध आ गया है। इस कारण उन्होंने तुरंत हो भोजन तैयार करके दो थाली में परोस दिया और शिवजी को भोजन करने के लिए बुलाया। दो पात्रों में भोजन परोसा देखकर शिवजी ने पूछा - "यह दूसरा पात्र किसके लिये है ?"
तब पार्वती ने प्रार्थनापूर्वक कहा - "यह पात्र आपके पुत्र गणेश के लिये है।"
यह सुनकर महादेव जी बोले- “मैंने तो उस बालक का सिर काट डाला है।"
इस पर पार्वती जी अत्यंत व्याकुल होकर बोलीं- "आप
उसको अभी सजीव कीजिए ।"
पार्वती को प्रसन्न करने के लिये शिवजी ने एक हाथी के बच्चे का सिर काटकर बालक के धड़ से जोड़ दिया और उसे सजीव कर दिया। इस प्रकार पार्वती अपने पुत्र गणेश की पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुई । उन्होंने पति और पुत्र दोनो को भोजन कराकर पीछे आप भी भोजन किया। यह घटना भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को हुई थी।
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