Published By:धर्म पुराण डेस्क

आदरपूर्वक देना और उसी की वस्तु उसी को देना 'अर्पण' कहलाता है

भगवान ने पदार्थों को तो देने की बात बतायी है- 'प्रयच्छति' और क्रियाओं को अर्पण करने की बात बतायी है— 'तत्कुरुष्व मदर्पणम्'; क्योंकि क्रियाएँ दी नहीं जाती।

ज्ञानयोगी तो संसार के साथ माने हुए सम्बन्ध का त्याग करता है, पर भक्त एक भगवान के सिवाय दूसरी सत्ता मानता ही नहीं। दूसरे शब्दों में, ज्ञानयोगी 'मैं' और 'मेरा' का त्याग करता है तथा भक्त 'तू' और 'तेरा' को स्वीकार करता है। इसलिये ज्ञानयोगी पदार्थ और क्रिया का 'त्याग' करता है तथा भक्त पदार्थ और क्रिया को भगवान को 'अर्पण' करता है अर्थात उनको अपना न मानकर भगवान का और भगवत्स्वरूप मानता है।

जिस वस्तु में मनुष्य की सत्यत्व एवं महत्व बुद्धि होती है, उसको मिथ्या समझकर यों ही त्याग देने की अपेक्षा किसी व्यक्ति के अर्पण कर देना, उसकी सेवा में लगा देना सुगम पड़ता है। फिर जो परम श्रद्धास्पद, परम प्रेमास्पद भगवान हैं, उनको अर्पण करने की सुगमता का तो कहना ही क्या है! 

दूसरी बात, त्यागी का त्याग का अभिमान भी आ सकता है, पर अर्पण करने वाले को अभिमान नहीं आ सकता; क्योंकि जिसकी वस्तु है, उसी को देने से अभिमान कैसे आयेगा? 'त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये'। सम्पूर्ण वस्तुएँ (मात्र संसार) सदा से ही भगवान्‌ की हैं। उनको भगवान्‌ के अर्पण करना केवल अपनी भूल (उनको अपना मान लिया- यह भूल) मिटाना है। भूल मिटाने पर अभिमान नहीं होता, प्रत्युत प्रसन्नता होती है।

स्वामी रामसुख कहते हैं संसार को भगवान को मानते ही संसार से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है अर्थात् संसार लुप्त हो जाता है, संसार की स्वतंत्र सत्ता नहीं रहती (जो वास्तव में है ही नहीं), प्रत्युत भगवान ही रह जाते हैं (जो वास्तव में हैं)। अतः संसार से सम्बन्ध-विच्छेद करने के लिये भक्त को विवेक की जरूरत नहीं है। वह संसार से सम्बन्ध-विच्छेद (त्याग) नहीं करता, प्रत्युत उसको भगवान का और भगवत्स्वरूप मानता है; क्योंकि अपरा प्रकृति भगवान की ही है।


 

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