धर्मात्मा रामानुजन वानप्रस्थ-आश्रम में स्थित होकर आकाशगंगा तीर्थ के समीप तपस्या की। गरमी में भगवान् विष्णु का ध्यान करते हुए वे पंचाग्नि के मध्य में स्थित रहते थे, वर्षा में खुले आकाश के नीचे बैठकर मुख से अष्टाक्षर (ॐ नमो नारायणाय) मन्त्र का जप और हृदय में भगवान् जनार्दन का ध्यान करते थे तथा जाड़े में जल के भीतर निवास करते थे।
वे समस्त प्राणियों के हितैषी, जितेन्द्रिय तथा सब प्रकार के द्वन्द्वों से दूर रहने वाले थे। उन्होंने कितने ही वर्षों तक सूखे पत्ते खाकर निर्वाह किया, कुछ काल तक जल का ही आहार किया और कुछ वर्षों तक वे केवल वायु पीकर रहे| तदनन्तर उनकी तपस्या से सन्तुष्ट होकर भक्तवत्सल भगवान विष्णु ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया।
भगवान के हाथों में शंख, चक्र और गदा आदि शोभा पा रहे थे। उनके नेत्र विकसित कमल के दलों की भाँति सुन्दर थे, श्री अंगों की दिव्य प्रभा कोटि-कोटि सूर्य के समान थी। वे विनता नन्दन गरुड़ पर आरूढ़ हो छत्र और चमर से सुशोभित थे। हार, भुजबन्द, मुकुट और कड़े आदि आभूषण उनके अंगों की शोभा बढ़ाते थे।
विष्वक्सेन और सुनन्द आदि पार्षद भगवान को सब ओर से घेर कर खड़े थे। वीणा, वेणु और मृदंग आदि बाजे बजाने वाले नारद आदि के द्वारा उनकी महिमा का गान हो रहा था। भगवान का ऐश्वर्य परम उत्तम रूप से प्रकट हो रहा था। वे पीताम्बर से शोभायमान थे। उनके वक्षःस्थल में लक्ष्मी का निवास था।
श्याम मेघ के समान उनकी कान्ति थी। दोनों पार्श्वभाग में खड़े हुए सनक आदि महायोगी भगवान की सेवा में लगे थे। अपनी मन्द-मन्द मुसकान से तीनों लोकों को मोहित और अंगों की दिव्य प्रभा से दसों दिशाओं को सम्मानित एवं प्रकाशित करते हुए भक्तसुलभे दया निधान भगवान वेंकटेश्वर महामुनि रामानुज के समीप उपस्थित हुए।
उन्होंने अपनी चारों बाहों से मुनि को पकड़कर हृदय से लगा लिया और प्रेमपूर्वक कहा- 'महामुने! कोई वर मांगो, मैं तुम्हारी तपस्या से बहुत प्रसन्न हूँ। तुमने जो नमस्कार किया है, उससे मेरा प्रेम और बढ़ गया है। मैं तुम्हें वर देने के लिये आया हूँ।"
रामानुज बोले- नारायण! रमानाथ! श्रीनिवास! जगन्मय! जनार्दन! जगद्धाम! गोविन्द ! नरान्तक! वेंकटाचल शिरोमणि! मैं आपके दर्शन से ही कृतार्थ हो गया। धर्मनिष्ठ पुरुष आपको नमस्कार करते हैं; क्योंकि आप धर्म के रक्षक हैं। जिन्हें महादेव जी और ब्रह्मा जी भी नहीं जानते, तीनों वेदों को भी जिसका ज्ञान नहीं हो पाता, उन्हीं आप परमात्मा को आज मैं जान पाया हूँ।
इससे अधिक और कौन सा वरदान हो सकता है? जिन्हें योगी नहीं देख पाते, केवल कर्मकाण्डी लोग जिनकी झांकी नहीं कर पाते, उन्हें आप परमात्मा का आज मुझे प्रत्यक्ष दर्शन हो रहा है। इससे बढ़कर और क्या हो सकता है? सम्पूर्ण जगत के स्वामी वेंकटेश्वर! मैं इतने से ही कृतार्थ हूँ। जिनके नाम का स्मरण करने मात्र से बड़े-बड़े पाप की मनुष्य भी मुक्ति को प्राप्त हो जाते हैं, उन्हीं भगवान जनार्दन का आज मैं प्रत्यक्ष दर्शन करता हूँ। प्रभु! आपके युगल चरणारविन्दे में मेरी अविचल भक्ति बनी रहे।
श्रीभगवान् ने कहा- महामते रामानुज! मुझमें तुम्हारी दृढ़ भक्ति हो । ब्रह्मन्! मेरी कही हुई दूसरी बात भी सुनो। जब सूर्य मेष राशि पर जाते हैं, उस समय चित्रा नक्षत्र से युक्त पूर्णिमा होने पर जो लोग आकाशगंगा में स्नान करते हैं, वे पुनरावृत्ति रहित परमधाम को प्राप्त होते हैं।
रामानुज! तुम आकाशगंगा के समीप ही निवास करो। प्रारब्ध कर्म के अनुसार प्राप्त हुए इस शरीर का अंत होने पर तुम्हें मेरे स्वरूप की प्राप्ति होगी। इस विषय में बहुत कहने की क्या आवश्यकता है। आकाशगंगा के शुभ जल में जो कोई भी स्नान करते हैं, वे सभी उत्तम भगवद्भक्त हो जाते हैं।
रामानुज ने पूछा- भगवन्! भगवद्भक्त के लक्षण क्या है? किस कर्म से उनकी पहचान होती है? मैं इस विषय को सुनना चाहता हूँ।
भगवान वेंकटेश बोले—मुनिश्रेष्ठ! तुम भगवद्भक्त के लक्षण सुनो। जो समस्त प्राणियों के हितैषी हैं, जिनमें दूसरों के दोष देखने का स्वभाव नहीं है, जो किसी से भी चाह नहीं रखते और ज्ञानी, निस्पृह तथा शान्तचित्त हैं, वे श्रेष्ठ भगवद्भक्त हैं। जो मन, वाणी और क्रिया द्वारा दूसरे को पीड़ा नहीं देते और जिनमें संग्रह करने का स्वभाव नहीं है तथा उत्तम कथा श्रवण करने में जिनकी सात्विक बुद्धि संलग्न रहती है तथा जो मेरे चरणारविन्द के भक्त हैं, जो उत्तम मानव माता- पिता की सेवा करते हैं, देवपूजा में तत्पर रहते हैं.
जो भगवती पूजन के कार्य में सहायक होते हैं और पूजा होती देखकर मन में आनंद मानते वे भगवद्भक्तों में सर्वश्रेष्ठ हैं। जो ब्रह्मचारियों और संन्यासियों की सेवा करते हैं तथा दूसरों की निन्दा कभी नहीं करते हैं, जो श्रेष्ठ मनुष्य सब के लिये हितकारी वचन बोलते हैं और जो लोक में सद्गुणों के ग्राहक हैं, वे उत्तम भगवद्भक्त हैं।
जो सब प्राणियों को अपने समान देखते हैं तथा शत्रु और मित्र में समभाव रखते हैं, जो धर्मशास्त्र के वक्ता तथा सत्यवादी हैं और जो ऐसे पुरुषों की सेवा में रहते हैं, वे सभी उत्तम भगवद्भक्त हैं। दूसरों का अभ्युदय देखकर जो प्रसन्न होते हैं तथा भगवन्नाम का कीर्तन करते रहते हैं, जो भगवान के नामों का अभिनंदन करते, उन्हें सुनकर अत्यंत हर्ष में भर जाते और सम्पूर्ण अंगों में रोमांचित हो उठते हैं, जो अपने आश्रमोचित आचार के पालन में तत्पर, अतिथियों के पूजक तथा पदार्थ के वक्ता हैं, वे उत्तम वैष्णव हैं।
जो अपने पढ़े हुए शास्त्रों को दूसरों के लिये बताते हैं और सर्वत्र गुणों को ग्रहण करने वाले हैं, जो एकादशी का व्रत करते, मेरे लिए सत्कर्म का अनुष्ठान करते रहते, मुझमें मन लगाते, मेरा भजन करते, मेरे भजन के लिये लालायित रहते तथा सदा मेरे नाम के स्मरण में तत्पर होते हैं, वे उत्तम भगवद्भक्त हैं। सद्गुणों की ओर जिनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति है, वे सभी श्रेष्ठ भक्त हैं।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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