 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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माता के रूप में परमेश्वर …
परमात्मा के दो रूप हैं- माता और पिता। सत्य, ज्ञान, प्रभुता, अनन्तता, न्याय, उत्कृष्टता, परात्परता और सर्वशक्तिमानता इत्यादि जैसे गुण ईश्वर के पिता स्वरूप से सम्बन्धित हैं। जबकि सुन्दरता, प्रेम, शक्ति, प्रखरता, करुणा, अनन्यता, शाश्वतता और कृपा जैसे गुण परमात्मा के माता से सम्बन्धित हैं।
संसार में परमात्मा के इन दो पक्षों की पूजा किसी न किसी रूप में सर्वत्र होती है। हिन्दुओं में परमेश्वर को माता मानकर पूजने की परिपाटी अधिक सनातन और सुविकसित है।
अधिकांश व्यक्ति परमेश्वर को पिता रूप में देखते हैं। परन्तु माता के रूप में परमात्मा की धारणा और अधिक शान्ति तथा पूर्णता प्रदान करती है। क्योंकि पिता भाव से यद्यपि निकटता का बोध होता है, परन्तु हृदय में माता का स्नेह एवं प्रेम की जड़ें पितृ प्रेम से अधिक गहरी होती है।
अपनी माता से कोई भी व्यक्ति कुछ गुप्त नहीं रख सकता। कभी-कभी पिता को प्रसन्न करने के लिए माता की सहायता लेनी पड़ती है। इसलिए परमात्मा की आराधना माता के रूप में करने की धारणा ईश्वर साक्षात्कार की ओर जाने वाली सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक भावना की परिणति है।
यद्यपि माता के रूप में ईश्वर एक ही है, परन्तु जीवों के विकास की विभिन्न अवस्थाओं के अनुसार देवी की अभिव्यक्ति भी विभिन्न रूपों में होती है। इस प्रकार माता, पिता (अपने पति) की सहायता से बाल जीवात्माओं को साधना पथ पर अग्रसर करती हुई विकास के विभिन्न सोपानों पर चढ़ाती जाती है।
जब बाल जीवात्मा को आत्मज्ञान प्राप्त हो जाता है तो वह माता रूप परमब्रह्म के साथ एक रूप होकर जन्म-मृत्यु के चक्र से हमेशा-हमेशा के लिए मुक्त हो जाता है। उसी स्थिति में देवी माता पिता (परमेश्वर) और जीवात्मा पत्र एक रूप हो जाते हैं। यही आत्म साक्षात्कार की अवस्था है जहाँ सभी प्रकार की द्वैतता समाप्त हो जाती है और परमानंद का अनुभव होता है।
स्वामी ज्योतिर्मयानंद
 
 
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