Published By:धर्म पुराण डेस्क

भगवान एवं भक्त का प्रेम अलौकिक है 

व्यक्ति की चेतना जैसे-जैसे शुद्ध होती जाती है, वैसे-वैसे उसकी आध्यात्मिक प्रगति होती जाती है और इसका प्रतिबिंब उसके चरित्र तथा आचार-व्यवहार में परिलक्षित होता है। 

सूरज जब क्षितिज पर आता है, तो अपने साथ अधिकाधिक उष्णता तथा प्रकाश भी लाता है। इसी प्रकार जब प्रभु के पवित्र नाम की अनुभूति का हृदय में उदय होता है, तब एक आध्यात्मिक अनुभूति व्यक्तित्व के सभी पहलुओं में परावर्तित होती है। अंत में भगवान तथा जीव के बीच का शाश्वत प्रेममय संबंध जागृत होता है। 

भौतिक दुनिया में प्रवेश करने से पूर्व प्रत्येक जीव का ईश्वर के साथ विशिष्ट आध्यात्मिक संबंध होता है। यह प्रेममय संबंध भौतिक जगत में अनुभव किए जाने वाले किसी भी प्रेममय संबंध से कई गुना तीव्र व श्रेष्ठ होता है।

विशुद्ध भगवत् प्रेम प्रत्येक जीव के हृदय में शाश्वत रीति से स्थित होता है, वह कहीं बाहर से या अन्य स्थान से कृत्रिम पद्धति द्वारा प्राप्त नहीं करना पड़ता। श्रवण-कीर्तन द्वारा जब चित्त शुद्ध होता है, तब यह प्रेम पुनः जागृत होता है। 

आध्यात्मिक जगत में हम शाश्वत स्वरूपावस्था में भगवान के प्रत्यक्ष सानिध्य में रह सकते हैं तथा प्रेम व भक्ति भावना के अनुरूप जो योग्य हो, उस रूप में उनकी सेवा कर सकते हैं। भगवान एवं भक्त के अलौकिक प्रेम के इस सम्बंध में शुद्ध भक्त दिव्य आनंद में तल्लीन रहता है।

इस स्थिति में उसका हृदय सूर्य के समान प्रकाशित होता है जैसे ग्रहमंडल से बहुत दूर रहकर किसी भी प्रकार का मेघ सूर्य को आवृत्त नहीं कर सकता, वैसे ही भक्त जब नित्य ईश्वर नाम का स्मरण करता है, तो उसका हृदय सूर्य के समान शुद्ध होता है तथा उसके हृदय में दिव्य प्रेम का संचार होता है, जो सूर्य के प्रकाश से भी श्रेष्ठतम होता है।


 

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