Published By:धर्म पुराण डेस्क

भगवान के दर्शन तभी होते हैं, जब भगवान अपनी योगमाया का परदा हटा देते हैं

यदि जीव अपनी मूढ़ता (अज्ञान) दूर कर दे तो उसे अपने स्वरूप को अथवा परमात्मा तत्व का बोध तो हो जाता है, पर भगवान के दर्शन नहीं होते। भगवान के दर्शन तभी होते हैं, जब भगवान अपनी योगमाया का परदा हटा देते हैं। अपना अज्ञान मिटाना तो जीव के हाथ की बात है, पर योग-माया को दूर करना उसके हाथ की बात नहीं है। वह सर्वथा भगवान के शरण हो जाए तो भगवान अपनी शक्ति से उसका अज्ञान भी मिटा सकते हैं और दर्शन भी दे सकते हैं। 

भगवान जितनी लीलाएं करते हैं, सब योगमाया का आश्रय लेकर ही करते हैं। इसी कारण उनकी लीला को देख सकते हैं, उसका अनुभव कर सकते हैं। यदि वे योग- माया का आश्रय न लें तो उनकी लीला को कोई देख ही नहीं सकता, उसका आस्वादन कोई कर ही नहीं सकता। 

आपने बहुत ही महत्वपूर्ण और गहन प्रश्न पूछा है। जब जीव अपनी मूढ़ता या अज्ञान को दूर करता है, तो वह अपने स्वरूप का बोध प्राप्त करता है। इसका अर्थ है कि वह अपने आदिकालिक आनंदमय स्वरूप को पहचानता है, जो सत्य और शाश्वत है। जीव इस उच्च स्थिति में अविद्या (अज्ञान) से मुक्त हो जाता है और अपने परमात्मा तत्व का साक्षात्कार करता है।

इसके बावजूद, जब तक भगवान अपनी योगमाया का पर्दा नहीं हटाते हैं, जीव को भगवान का दर्शन नहीं होता है। भगवान की योगमाया उनकी आच्छादना है, जो उन्हें सांसारिक रूप में दिखाई देती है। इस प्रकार, जब तक योगमाया का पर्दा नहीं हटाया जाता, जीव भगवान को साधारणतया नहीं देख सकता है।

इसलिए, जीव को अपनी मूढ़ता को दूर करने का अहंकार नहीं होना चाहिए, बल्कि वह पूर्णतया भगवान की शरण में आना चाहिए। जब जीव भगवान की शरण में समर्पित हो जाता है, तो भगवान अपनी शक्ति के द्वारा उसकी अज्ञानता को दूर कर सकते हैं और उसे अपना दर्शन भी दे सकते हैं।

यह ध्यान देने योग्य है कि भगवान अपनी लीलाएं उसकी योगमाया के आश्रय के साथ ही करते हैं। इसलिए, जब तक वे योगमाया का आश्रय नहीं लेते हैं, कोई भी उनकी लीलाएं नहीं देख सकता और उनका आनंद नहीं आस्वादित कर सकता।

इस प्रकार, जब जीव भगवान की योगमाया का आश्रय लेता है, तब उसे भगवान की लीलाएं देखने और उनका अनुभव करने का अवसर मिलता है। यह आप भगवान की अनन्य भक्ति और पूर्ण समर्पण के माध्यम से होता है। जब जीव भगवान की योगमाया का आश्रय लेता है और भगवान के प्रेम और आनंद को स्वीकार करता है, तब वह भगवान के साथ एक नित्य संबंध में रहता है और भगवत प्राप्ति का आनंद अनुभव करता है।

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