Published By:धर्म पुराण डेस्क

भगवान भक्त के भीतर छिपे हुए मोह को पहले जागृत करके फिर उसको मिटाते हैं …

'उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति'– 'कुरु' पद में धृतराष्ट्र के पुत्र और पाण्डु के पुत्र - ये दोनों आ जाते हैं; क्योंकि ये दोनों ही कुरुवंशी हैं। 

युद्ध के लिए एकत्र हुए इन कुरुवंशियों को देख - ऐसा कहने का तात्पर्य है कि इन कुरुवंशियों को देखकर अर्जुन के भीतर यह भाव पैदा हो जाए कि हम सब एक ही तो हैं! इस पक्ष के हो, चाहे उस पक्ष के हो, भले हों, चाहे बुरे हो; सदाचारी हों, चाहे दुराचारी हों; पर हैं सब अपने ही कुटुम्बी। 

इस कारण अर्जुन में छिपा हुआ कौटुम्बिक ममता युक्त मोह जागृत हो जाए और मोह जाग्रत होने से अर्जुन जिज्ञासु बन जाए, जिससे अर्जुन को निमित्त बनाकर भावी कलयुगी जीवों के कल्याण के लिये गीता के महान उपदेश दिया जा सके|

इसी भाव से भगवान ने यहां 'पश्यैतान् समवेतान् कुरून्' कहा है। नहीं तो भगवान‘पश्यैतान् धार्तराष्ट्रान् समानिति' ऐसा भी कह सकते थे; परन्तु ऐसा कहने से अर्जुन के भीतर - युद्ध करने का जोश आता; जिससे गीता के प्राकट्य का अवसर न ही नहीं आता ! और अर्जुन के भीतर का प्रसुप्त कौटुम्बिक मोह भी दूर नहीं होता, जिसको दूर करना भगवान अपनी जिम्मेदारी मानते हैं। 

जैसे कोई फोड़ा हो जाता है तो वैद्य लोग पहले उसको पकाने की चेष्टा करते हैं और जब वह पक जाता है, तब उसको चीरा देकर साफ कर देते हैं; ऐसे ही भगवान भक्त के भीतर छिपे हुए मोह को पहले जागृत करके फिर उसको मिटाते हैं। 

यहाँ भी भगवान अर्जुन के ने भीतर छिपे हुए मोह को 'कुरून् पश्य' कहकर जागृत कर रहे हैं, जिसको आगे उपदेश देकर नष्ट कर देंगे।

भगवान ने रथ खड़ा करके अर्जुन के मोह को जाग्रत करने के लिये ही 'कुरून् पश्य' (इन कुरुवंशियों को देख) —ऐसा कहा है।

कौटुंबिक स्नेह और भगवत्प्रेम- इन दोनों में बहुत अंतर है। कुटुम्ब में ममता युक्त स्नेह हो जाता है तो कुटुम्ब के अवगुणों की तरफ खयाल जाता ही नहीं; किंतु 'ये मेरे हैं'—ऐसा भाव रहता है। 

ऐसे ही भगवान का भक्त में विशेष स्नेह हो जाता है तो भक्त के अवगुणों की तरफ भगवान का खयाल जाता ही नहीं; किन्तु 'यह मेरा ही है - ऐसा ही भाव रहता है। कौटुंबिक स्नेह में क्रिया तथा पदार्थ (शरीरादि-) की और भगवत्प्रेम में भाव की मुख्यता रहती है। 

कौटुम्बिक स्नेह में मूढ़ता - (मोह-) की और भगवत्प्रेम में आत्मीयता की मुख्यता रहती है। कौटुंबिक स्नेह में अँधेरा और भगवत्प्रेम में प्रकाश रहता है। कौटुम्बिक स्नेह में मनुष्य कर्तव्यच्युत हो जाता है और भगवत्प्रेम में तल्लीनता के कारण कर्तव्य-पालन में विस्मृति तो हो सकती है, पर भक्त कभी कर्तव्यच्युत नहीं होता। कौटुंबिक स्नेह में कुटुम्बियों की और भगवत्प्रेम में भगवान की प्रधानता होती है।


 

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