 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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शक्तियां जड़ प्रकृति में नहीं रह सकतीं, प्रत्युत चिन्मय परमात्म तत्त्व में ही रह सकती हैं। जिस ज्ञान से क्रिया हो रही है, वह ज्ञान जड़ में कैसे रह सकता है?
अगर ऐसा मानें कि सब शक्तियां प्रकृति में ही हैं, तो भी यह मानना पड़ेगा कि उन शक्तियों का प्राकट्य और उपयोग (सृष्टि रचना आदि) करने की योग्यता प्रकृति में नहीं है। जैसे, कंप्यूटर जड़ होते हुए भी अनेक चमत्कारिक कार्य करता है, पर उसका निर्माण और संचालन करने वाला चेतन (मनुष्य) है।
मनुष्य के द्वारा निर्मित, शैक्षिक तथा संचालित हुए बिना वह कार्य नहीं कर सकता। कम्प्यूटर स्वतः सिद्ध नहीं है, प्रत्युत कृत्रिम (बनाया हुआ) है जबकि परमात्मा स्वतः सिद्ध हैं।
अगर परमात्मा में विशेषता न होती तो वह संसार में कैसे आती? जो विशेषता बीज में होती है, वही वृक्ष में भी आती है। जो विशेषता बीज में नहीं है, वह वृक्ष में कैसे आएगी? उसी परमात्मा की कवित्व शक्ति कवि में आती है, उसी की वक्तृत्व-शक्ति वक्ता में आती है, उसी की लेखन शक्ति लेखक में आती है, उसी की दातृत्व-शक्ति दाता में आती है।
मुक्ति, ज्ञान, प्रेम आदि सब उस परमात्मा का ही दिया हुआ है। यह प्रकृति का कार्य नहीं है। अगर 'में मुक्त स्वरूप हूँ'- यह बात सच्ची है तो फिर बन्धन कहाँ से आया, कैसे आया, कब आया और क्यों आया? अगर 'मैं ज्ञानस्वरूप हूँ'- यह बात सच्ची है तो फिर अज्ञान कहाँ से आया, कैसे आया, कब आया और क्यों आया ?
सूर्य में अमावस की रात कैसे आ सकती है ? वास्तव में ज्ञान है तो परमात्मा का, पर मान लिया अपना, तभी अज्ञान आया है। मैं ज्ञानस्वरूप हूँ, ज्ञान मेरा है- यह 'मैं' और 'मेरा' (अहंता-ममता) ही अज्ञान है जिससे मुक्ति, ज्ञान, प्रेम आदि मिले हैं, उसकी तरफ दृष्टि न रहने से ही ऐसा दिखता है कि मुक्ति मेरी है, ज्ञान मेरा है, प्रेम मेरा है।
यह तो देनेवाले (परमात्मा) की विलक्षणता है कि लेनेवाले को वह चीज अपनी ही मालूम देती है। स्वामी रामसुखदास जी लिखते हैं कि परमात्मा की यह विलक्षणता महान् आदर्श है, जिसका साधकों को आदर करना चाहिए। मनुष्य से यह बहुत बड़ी भूल होती है कि वह मिली हुई वस्तु को तो अपनी मान लेता है, पर जहाँ से वह मिली है, उस देने वाले की तरफ उसकी दृष्टि जाती ही नहीं! वह मिली हुई वस्तु को तो देखता है, पर देने वाले को देखता ही नहीं!
कार्य को तो देखता है, पर जिसकी शक्ति से कार्य हुआ, उस कारण को देखता ही नहीं! वास्तव में वस्तु अपनी नहीं है, प्रत्युत देनेवाला अपना है।
भगवान की दी हुई सामर्थ्य से ही मनुष्य कर्मयोगी होता है, उनके दिए हुए ज्ञान से ही मनुष्य ज्ञानयोगी होता है। और उनके दिए हुए प्रेम से ही मनुष्य भक्तियोगी होता है।
मनुष्य में जो भी विलक्षणता, विशेषता देखने में आती है, वह सब की सब उन्हीं की दी हुई है। सब कुछ देकर भी वे अपने को प्रकट नहीं करते यह उनका स्वभाव है।
 
 
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