Published By:धर्म पुराण डेस्क

ईश्वर बंद नहीं है मठ में, वह तो व्याप रहा घट-घट में

अँधेरा चाहे कितना भी घना क्यों न हो, प्रकाश के प्रभाव में आते ही उसका प्रभाव समाप्त हो जाता है। प्रकाश के अवतरण के साथ हो अंधेरा भाग खड़ा होता है, अँधेरे का अवसान हो जाता है, तिरोधान हो जाता है। दिनमान के आते हो अंधेरा अदृश्य हो जाता है, 

काले-काले बादलों से भरा आकाश, दिनमान के आते ही जगमगा उठता है, चमक उठता है, तेजोमय हो जाता है, ज्योतिर्मय हो जाता है। ठीक उसी तरह से कामनाओं व कर्म संस्कारों से भरा चित्त चिदाकाश आत्मज्ञान, ब्रह्मज्ञान के तेजोमय प्रकाश के पड़ते ही जगमगा उठता है, और फिर उसी जगमगाहट में साधक को अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होता है, अपने चैतन्यमयी स्वरूप का ज्ञान होता है। 

फिर वह अपने चैतन्य स्वरूप ज्ञान के द्वारा अविद्या का नाश करके आत्मरूप अखंड ब्रह्म का साक्षात्कार कर पाता है। तब वह ज्ञान और अज्ञान के कार्य पाप-पुण्य, शुभ-अशुभ, राग-द्वेष एवं संशय-अम के बंधन से मुक्त हो जाता है और उसे यह बोध हो जाता है कि मैं सत्-चित्- आनंद स्वरूप हूँ मैं नित्य और चैतन्य स्वरूप हूँ। 

उसे यह आभास होने लगता है कि यह संपूर्ण कायनात, जगत, सृष्टि, ब्रह्मांड, परब्रह्म परमेश्वर की ही अभिव्यक्ति है। सृष्टि के कण-कण में उसी एक ब्रह्म का नूर प्रतिभाषित हो रहा है। ऐसी ब्राह्मी दृष्टि पा लेने के बाद सर्वत्र ब्रह्म ही ब्रह्म दीखने लगते हैं। 

जैसा कि कहा गया है- एक नूर ते सब जग उपजा कौन भले कौन मन्दे? सब घट मेरा साइयां, खाली घट न कोय। वे बाहर से दिखते तो सामान्य हैं, पर उनकी आत्मा ब्रह्म के ब्राह्मी प्रकाश से नहाई हुई होती है। 

फलतः सामान्य जन जहाँ सांसारिक सुख-दुख, हानि-लाभ, यश- अपयश, मान-सम्मान के बंधन में पड़े, रीझते और खीजते रहते हैं, वहीं ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त लोग हर पल आनंदित, आहादित और प्रफुल्लित रहते हैं।

ऋषिकेश भ्रमण के दौरान स्वामी विवेकानंद को एक ऐसे ही विरले ब्रह्मनिष्ठ संत के दर्शन हुए थे। वे लिखते हैं— 'ऋषिकेश में मैंने कई महान व्यक्तियों को देखा। उनमें से एक पागल के समान दिख पड़ते थे। वे दिगंबर रूप में सड़क पर चले आ रहे थे। लड़के पत्थर मारते हुए उनका पीछा कर रहे थे। उनके चेहरे और गले से रक्त झर रहा था, किंतु फिर भी उनका संपूर्ण व्यक्तित्व हँसी से प्रफुल्लित था। 

मैंने उन्हें एक ओर ले जाकर उनके घावों को धोया। रक्तस्राव बंद करने के लिए उन पर राख लगाई; किंतु वे अनवरत हंस रहे थे और कह रहे थे कि मुझे पत्थर मारने में ब्रह्म रूप लड़कों को कैसा आनंद आ रहा था। अहा! मेरे भगवान उन लड़कों के वेश में क्या खेल, खेल रहे थे। यह सब उन्हीं परमपिता का खेल है।'

ऐसे ब्रह्मनिष्ठ संतों को सामान्य बुद्धि, भौतिक दृष्टि से न तो समझा जा सकता है, न ही जाना-पहचाना जा सकता है। ब्रह्म के प्रेम में पागल कोई घायल व्यक्ति ही इसे समझ सकता है। जैसा कि कहा गया है-'घायल की गति घायल ही जाने।' स्वामी विवेकानंद ने अपनी ब्रह्म दृष्टि से देख समझ लिया था कि ये फकीर, दिखने में सामान्य है, पर आत्मिक तल पर वे कितने असाधारण है। स्वयं विवेकानंद को भी तो उनके गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस देव ने अपनी ब्रह्म दृष्टि से पलभर में ही और पहली मुलाकात में ही पहचान लिया था।

जब स्वामी विवेकानंद, नरेंद्र रूप में पहली बार दक्षिणेश्वर काली मंदिर में श्री रामकृष्ण से मिलने आए थे, तब उनके बारे में ठाकुर रामकृष्ण परमहंस ने कहा था- "नरेंद्र ने पश्चिमी द्वार से कमरे में प्रवेश किया। न तो वेशभूषा या शरीर की ओर उसका ध्यान था और न ही संसार के प्रति आकर्षण आँखों में अंतर्मुखता स्पष्ट झलक रही थी और ऐसा लगता था मानो मन का एक अंश सदा ही कहीं भीतर ध्यानमग्न हो। 

कलकत्ते के भौतिकवादी वातावरण से इस प्रकार आध्यात्मिक चेतना संपन्न व्यक्ति के आगमन से मैं चकित रह गया।"


 

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