 Published By:बजरंग लाल शर्मा
 Published By:बजरंग लाल शर्मा
					 
					
                    
कुछ पंथ परमात्मा को निराकार कहते हैं जब सृष्टि की रचना ही नहीं थी, तो परमात्मा तो था और वह यदि निराकार था तो निराकार का स्थान कहां था ? उसने सृष्टि की रचना कहां की ? इसका उत्तर उनके पास नहीं है।
सभी संत और शास्त्र यह कहते हैं कि सतगुरु परमात्मा के यहां से जीवों को ज्ञान देने के लिए आते हैं। तो क्या सतगुरु भी परमात्मा के साथ उनके धाम में निराकार अवस्था में थे ? यदि हां तो परमात्मा और सतगुरु की पहचान किस प्रकार की जाए ?
सृष्टि की रचना माया (प्रकृति) ने की है। इसके दो रूप हैं, साकार और निराकार। जब यह सृष्टि की रचना करती है तो साकार रूप धारण कर लेती है और जब यह सृष्टि को समेट लेती है तो निराकार हो जाती है। इस प्रकार साकार और निराकार दोनों रूप ही माया के हैं। परमात्मा का स्वरूप इन दोनों रूपो से अलग है। परमात्मा का स्वरूप साकार है परंतु वह कभी मिटता नहीं है, इसलिए उसको शुद्ध साकार कहा जाता है।
जब यह सृष्टि नहीं बनी थी तो माया अपने अनादि रूप में अक्षर पुरुष के धाम में निराकार रूप में सुप्तावस्था में थी। परमात्मा तो पूर्ण ब्रह्म अक्षरातीत श्री कृष्ण हैं, उनका धाम परमधाम है, ये माया रहित हैं। इनके धाम में माया नहीं है, इनका शरीर दिव्य है।
सृष्टि की रचना माया तथा काल के द्वारा हुई है। यदि काल नहीं होता तो सृष्टि कभी मिटती नहीं, अब प्रश्न यह उठता है कि जब सृष्टि नहीं थी तो काल कहां पर था ? शास्त्र यह भी कहते हैं कि पूर्ण ब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत श्री कृष्ण काल रहित है, वहां जन्म और मृत्यु नहीं होती है। काल अपनी सूक्ष्म अवस्था में अक्षर पुरुष के धाम में है।
सृष्टि की रचना अक्षर पुरुष के चित्त में मोह जल रूपी नींद के अंदर होती है। इस नींद को संतो ने तथा शास्त्रों ने सुंन कहा है।
संत एवं शास्त्र कहते हैं कि जब सृष्टि नहीं बनी थी तो जीव अपने अनादि रूप में अक्षर ब्रह्म के चित्त में कल्पना रूपी बीज में निराकार अवस्था में था। जीव के साथ जो चेतन है वह अक्षर ब्रह्म के मन का अंश है तथा यह भी निराकार है।
उपरोक्त कथन से यह सिद्ध है कि माया, काल, जीव तथा ब्रह्म इन सभी का मूल स्वरूप निराकार है। यदि परमात्मा के स्वरूप को भी निराकार मान लिया जाए तो इनकी अलग अलग पहचान किस प्रकार होगी। साथ ही शास्त्रों की यह बात भी गलत हो जाएगी कि परमात्मा काल एवं माया रहित है।
यह सृष्टि स्वप्न की है तथा मन के संकल्प से बनी है। मन शरीर का अंग है तथा निराकार परमात्मा का तो शरीर होता नहीं है तो यह रचना किस प्रकार संभव हुई ?
स्वप्न तो जागृत अवस्था का प्रतिबिंब होता है निराकार तो स्वप्न की रचना कर ही नहीं सकता है क्योंकि निराकार का शरीर नहीं होता है तथा बिना शरीर के प्रतिबिंब नहीं पड़ सकता है।
बजरंग लाल शर्मा
 
 
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