Published By:धर्म पुराण डेस्क

परमात्मा बार-बार जन्म लेता है ताकि वह संसार को सुधार सके

परम, असीम, स्वतः विद्यमान और अविकार्य का ससीम मानव प्राणी के साथ, जो सांसारिक व्यवस्था में फंसा हुआ है, सम्बन्ध कल्पनातीत रूप से घनिष्ठ है, हालांकि इस सम्बन्ध की परिभाषा कर पाना और उसका स्पष्टीकरण कर पाना कठिन है। उन महान आत्माओं को, जिन्हें हम अवतार कहते हैं, परमात्मा, जो मानव के अस्तित्व और गौरव के लिए उत्तरदायी है, इस अस्तित्व और गौरव को आश्चर्यजनक रूप से नवीन रूप दे देता है। 

अवतारों में उस सनातन का, जो विश्व की प्रत्येक घटना में विद्यमान है, अनुक्रमिकता में प्रवेश एक गंभीर अर्थ में प्रकट होता है। हमें स्वतंत्र इच्छा-शक्ति प्रदान करने के बाद परमात्मा हमें छोड़कर अलग खड़ा नहीं हो जाता कि हम स्वेच्छापूर्वक अपना निर्माण या विनाश कर सकें। 

जब भी कभी स्वतंत्रता के दुरुपयोग के फलस्वरूप अधर्म बढ़ जाता है और संसार की गाड़ी किसी लीक में फंस जाती है, तो संसार को उस लीक में से निकालने के लिए और किसी नये रास्ते पर उसे चला देने के लिए वह स्वयं जन्म लेता है। अपने प्रेम के कारण वह सृष्टि के कार्य को उच्चतर स्तर पर ले जाने के लिए बार-बार जन्म लेता है। 

महाभारत के एक श्लोक के अनुसार विश्व की रक्षा के लिए सदा उद्यत भगवान के चार रूप हैं। उनमें एक पृथ्वी पर रहकर तप करता है; दूसरा गलतियां करने- वाली मानवता के कार्यों पर सतर्क दृष्टि रखता है; तीसरा मनुष्य-जगत् में कर्म में लगा रहता है और चौथा रूप एक हजार साल की नींद में सोया रहता है। पूर्ण निष्क्रियता ही ब्रह्म के स्वभाव का एकमात्र पक्ष नहीं है। 

हिन्दू परम्परा में बताया गया है कि अवतार केवल मानवीय स्तर तक ही सीमित नहीं है। कष्ट और अपूर्णता की विद्यमानता का मूल मनुष्य के विद्रोही संकल्प में नहीं बताया गया, अपितु परमात्मा के सृजनात्मक प्रयोजन और वास्तविक संसार के मध्य विद्यमान विषमता में बताया गया है। 

यदि कष्ट का मूल मनुष्य के 'पतन' को माना जाए, तो हम निर्दोष प्रकृति की अपूर्णताओं की, उस भ्रष्टता की, जो सब जीवित वस्तुओं में विद्यमान है, और रोग के विधान (व्यवस्था) की व्याख्या नहीं कर सकते। इस निदर्शक प्रश्न से, कि मछलियों को कैंसर क्यों होता है, किसी प्रकार पिंड नहीं छुड़ाया जा सकता। 

गीता बताती है कि एक दिव्य स्रष्टा है, जो अगाध शून्य पर अपने रूपों का आरोप करता है। प्रकृति एक अपरिष्कृत पदार्थ है, एक अव्यवस्था, जिसमें से व्यवस्था का विकास किया जाना है; एक रात्रि जिसे प्रकाशित किया जाना है। परम, असीम, स्वतः विद्यमान और अविकार्य का सम्बंध मानव प्राणी के साथ है, जो सांसारिक व्यवस्था में फंसा हुआ है, और जो सम्बन्ध अद्भुत तरीके से घनिष्ठ होता है, हालांकि इस सम्बन्ध की परिभाषा और स्पष्टीकरण करना कठिन हो सकता है। 

अवतारों में परमात्मा, जो सदैव स्वतः विद्यमान है, इस सांसारिक व्यवस्था के बीच आकर्षक रूप से प्रकट होता है और उसकी गहरी अद्वितीयता को प्रकट करता है. अवतारों में वह दिव्य वास्तविकता को नए रूपों में प्रस्तुत करके मानव अस्तित्व और गौरव को नया दिशा देता है.

परमात्मा, जो सदा विद्यमान है, मानवों को कभी नहीं छोड़ता, वरन उन्हें स्वतंत्र इच्छा और शक्ति देता है, और संसार की गाड़ी को संचालित करने का जिम्मेदारी देता है. जब कभी कुछ गलत हो जाता है और अधर्म बढ़ता है, तो परमात्मा बार-बार जन्म लेता है ताकि वह संसार को सुधार सके.

महाभारत में कहा गया है कि भगवान के चार रूप हैं, जो सदा उद्यत रहते हैं:

* पृथ्वी पर तप करने वाला रूप.

* गलतियां करने वाले के कार्यों पर ध्यान देने वाला रूप.

* कर्म में लगे रहने वाला रूप.

* नींद में सोने वाला रूप.

यह रूप परमात्मा के विभिन्न पहलुओं को प्रकट करते हैं. अवतारों के माध्यम से परमात्मा संसार को सुधारने और व्यवस्था को स्थापित करने के लिए बार-बार जन्म लेते हैं.

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