Published By:धर्म पुराण डेस्क

भगवान के सगुण स्वरूप और अवतार

एक रूप उसका निर्गुण, निराकार, मन तथा वाणी के अगोचर है। योगी अपने योग की साधना से निर्विकल्प समाधि में उसका साक्षात्कार करते हैं। ज्ञानी तत्त्व चिन्तन द्वारा समस्त दृष्ट श्रुत पदार्थों से मन को पृथक करके द्रष्टा रूप से उसमें उपस्थित होते हैं, पर सर्वसाधारण उसके इस रूप की भावना नहीं कर सकते जगत का वह उत्पत्ति स्थिति, प्रलय का अहेतु हेतु दया करके या लीला के लिये अनेक भावमय नित्य आनंद ने रूपों में नित्य लीला करता है। उसके इन सगुण साकार, चिन्मय रूपोंके ध्यान-स्मरण, नाम जप, लीला-चिन्तन से मानव हृदय शुद्ध हो जाता है। मनुष्य इन रूपों में से किसी को नैष्ठिक रूप से हृदय में विराजमान करके संसार सागर से पार हो जाता है।

सगुण साकार प्रभु के ये रूप नित्य सर्वेश्वर तथा

अवतार रूप दोनों प्रकार के हैं। सृष्टि, स्थिति, प्रलय के लिये ब्रह्मा, विष्णु, महेश रूप से वे उपासित होते हैं । उनके साथ उनकी विभिन्न शक्तियां होती ही हैं। वही सूर्य और गणेश रूप से भक्तों द्वारा सेवित होते हैं । पंचदेवोपासना में गणेश, शिव, शक्ति, सूर्य और विष्णु उन्हीं के रूप हैं ।

जगत में धर्म की स्थापना, ज्ञान के संरक्षण, भक्तों से परित्राण तथा आततायी असुरों के दलने के लिये एवं प्रेमी भक्तों की प्रेम उत्कण्ठा पूर्ण करने के लिये वे प्रभु बार-बार अवतीर्ण होते हैं। उनके ये अवतार रूप दिव्य, सच्चिदानन्दघन हैं। ये अवतार-लीला परम मंगलमय हैं।

अवतारा ह्यसंख्येया हरेः सत्त्वनिधेर्द्विजाः । सत्त्व मूर्ति भगवान के अवतारों की कोई संख्या नहीं ।

१- मत्स्य, २-कच्छप, ३-वाराह, ४-नृसिंह,

५ - वामन, ६-परशुराम, ७- श्रीराम, ८-बलराम, ९ - बुद्ध ७ और १०- कल्कि- ये दशावतार युगावतार के रूप शास्त्रों ना माने हैं। इनके अतिरिक्त ११-श्रीकृष्ण का अवतार पूर्णावतार कहा जाता है। उसका कोई निश्चित समय नहीं। पिछले अट्ठाईसवें द्वापर में यह अवतार हुआ था । अर्थात इस श्वेतवाराह कल्प से पूर्व कल्प में श्रीकृष्ण ने अवतार विग्रह धारण नहीं किया । १२-नर-नारायण, १३-सनकादि, १४- कपिल, १५ - दत्तात्रेय, १६-यज्ञ, १७-ऋषभ, १८ हंस, १९-धन्वन्तरि, २० - हयशीर्ष, २१ - व्यास- ये भगवान के अवतार विश्व में ज्ञान-परम्परा की रक्षा, प्रसार तथा उसके आदर्श-स्थापना के लिये हुए । २२- पृथु रूप में भगवान लोक-व्यवस्था के संचालन के लिये पधारे । २३-ध्रुव के लिये और २४-गजेन्द्र के लिये भगवान का अवतार हुआ। इनके अतिरिक्त असुरों को मोहित करने के लिये भगवान ने मोहिनी रूप धारण किया था।

हिंदू-शास्त्रों ने ही इस सगुण तत्त्व के रहस्य को समझा और स्वीकार किया। मूर्तिपूजा विश्व के प्रत्येक भाग में, प्रत्येक प्राचीन जाति में प्रचलित थी और मानव स्वभाव मूर्ति पूजा होने से किसी-न-किसी रूप में वह मनुष्य मात्र में रहेगी ही; परंतु मनुष्य को यह स्वभाव उस दयामय ने क्यों प्रदान किया? इसका उत्तर श्रुति एवं महर्षि ही दे सके । वह स्वयं सगुण साकार है। उसके दिव्य रूप में हमारी अनुरक्ति हो तो हम समस्त कष्टों से परित्राण पा जायँ । अवतार - रहस्य पर पृथक् विचार किया गया है। यहाँ भगवान के नित्य दिव्य रूपों एवं चरित का अत्यंत संक्षिप्त स्मरण मात्र करना है।

 

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